Tuesday, September 5, 2023

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज: गया साधना शिविर एवं श्राद्ध पूजा

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आध्यात्मिक संग्रह के अद्वितीय स्वरूप, परम प्रेम के प्रतीक और भक्तों के दिलों में बसने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अद्वितीय छवि ने सदैव उनके भक्तों के मनोबल को बढ़ावा दिया है। उनके श्री विभूषित संदेश और उपदेशों ने लाखों जीवों के जीवन में नई दिशा दिलाई है। जब वे इस लोक से गोलोक महाप्रयाण करने गए, तो भी उनके भक्तों ने उनकी आत्मा के विदाय रोकने का प्रयास किया और उनकी यात्रा को अपनी श्रद्धांजलि और प्रेम से भर दिया।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की पुण्यतिथि के अवसर पर, बिहार प्रान्त के गया नामक तीर्थ में एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत उनके श्रद्धांजलि और पिंड दान का आयोजन किया गया, जो लौकिक और वैदिक परम्पराओं के अनुसार किए गए। इसके साथ ही, तीन बनाकर दिनों तक चलने वाला साधना शिविर भी आयोजित किया गया, जिसमें भक्तों ने आध्यात्मिक आदर्शों का अनुसरण करते हुए अपने आत्मा की ऊर्जा को नवीनतम स्तर तक पहुँचाने का प्रयास किया।


कार्यक्रम की शुरुआत दिनांक 6 नवम्बर 2014 को फल्गुनदी स्थित अनुष्ठान क देवघाट पर हुई, जहाँ भक्तजन ने पवित्र नदी में स्नान करके अपने अध्यात्मिक साधना की शुरुआत की। उसके पश्चात्, दिनांक 7 नवम्बर 2014 को गया के विष्णुपाद मन्दिर में विशेष पूजा आयोजित की गई, जिसमें भक्तजन ने उनके पादों में अपनी भक्ति और श्रद्धा का प्रकटीकरण किया।


इस अद्वितीय अवसर पर दिनांक 8 नवम्बर 2014 को, अक्षयवट नामक स्थान पर पिंड दान का आयोजन किया गया, जिसमें भक्तों ने अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की और पिंडों के द्वारा उनके स्मरण की यादें ताजगी से महसूस की। इसके साथ ही, दिनांक 7 नवम्बर को एक विशाल शोभा यात्रा भी निकाली गई, जिसमें उनके भक्तजन ने उनके जीवन और उपदेशों के प्रति अपनी आदरभावना और समर्पण को प्रकट किया।


इस पवित्र अवसर पर, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अमृततत्व से भरपूर शिक्षाएं और आदर्शों का समारोह किया गया। उनकी अनमोल विचारधारा ने भक्तों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी महासमाधि की पुण्यतिथि पर यह आयोजन उनके भक्तों का एक साथ आकर्षित होने का अवसर था, जिसमें वे उनके आदर्शों का अनुसरण करने का संकल्प फिर से पुष्टि करते थे।


इस प्रकार, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की पुण्यतिथि पर गया साधना शिविर और श्राद्ध पूजा का आयोजन करके उनके भक्तों ने उनके आदर्शों का पालन करने का संकल्प फिर से अद्भुत रूप से प्रकट किया। इस अद्वितीय पर्व के माध्यम से, उनके उपदेशों की महत्वपूर्णता और आध्यात्मिक जीवन के मार्गदर्शन की महत्वपूर्णता को हम सभी ने महसूस किया और उनके प्रेम से भरे हुए संदेशों का अनुसरण करने का संकल्प लिया।

जगद्गुरु कृपालु परिषत् द्वारा आयोजित ब्रज में हुए महन्त भोज, साधु भोज एवं विधवा भोज

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जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने वृंदावन में एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें विशेष महंत भोज, साधु भोज और विधवा भोज का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम का आयोजन 11 नवम्बर 2014 को श्यामा श्याम धाम में किया गया था। इस कार्यक्रम के अध्यक्षाओं में सुश्री डॉ. विशाखा त्रिपाठी, सुश्री डॉ. श्यामा त्रिपाठी और सुश्री डॉ. कृष्णा त्रिपाठी शामिल थीं। 

11 नवम्बर 2014 को जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने ब्रज के विशिष्ट विभूतियों के सम्मान में एक विशेष महंत भोज का आयोजन किया। इस कार्यक्रम में ब्रज के महंत, रासाचार्य और वैष्णव समुदाय के प्रमुख सदस्यों का सत्कार किया गया।


12 नवम्बर 2014 को जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने एक विशाल साधु भोज का आयोजन किया, जिसमें 7000 साधुओं को आमंत्रित किया गया था। इस अद्भुत साधु भोज में विभिन्न साधु-संत और धार्मिक गुरुजनों ने भाग लिया और अपने आदर्शों और आशीर्वादों को साझा किया।


14 नवम्बर 2014 को प्रेम मंदिर प्रांगण में एक विशाल विधवा भोज का आयोजन किया गया, जिसमें 4000 विधवाएं शामिल हुईं। इस उपलब्धि के माध्यम से, जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने विधवाओं के प्रति अपनी सामाजिक सहयोगी भावना को प्रकट किया और उनकी सेवा का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।


इसके अतिरिक्त, जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने वृंदावन के नेत्रहीन और कुष्ठरोगियों के आश्रमों में भी 150 बैग दान में दिये, जिनमें दैनिक उपयोग में आने वाली अनेक वस्तुएं और वस्त्र आदि शामिल थे।


भक्तियोग रसावतार भगवदनन्त श्री विभूषित जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की पावन प्रेरणा के साथ ही, जगद्गुरु कृपालु परिषद् के नेतृत्व में ब्रज क्षेत्र में विभिन्न भाँतियों के भोज का आयोजन किया गया। इससे सामाजिक समर्पण और सेवा की उत्कृष्टता का प्रतीक मिलता है।


15 नवम्बर 2014 को जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने "रंगीली महल" आश्रम में 4000 साधुओं के लिए साधु भोज का आयोजन किया। इसके बाद, 16 नवम्बर 2014 को 2000 विधवाओं के लिए विशाल विधवा भोज का आयोजन किया गया।


इस प्रकार, जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने अपने सामाजिक और धार्मिक उद्देश्यों के प्रति अपने समर्पण को प्रकट किया और ब्रज क्षेत्र के विभिन्न वर्गों के लोगों के प्रति अपनी गहरी सहयोगी भावना को दर्शाया। इसके माध्यम से उन्होंने भगवान की सेवा में अपने आत्मा को समर्पित किया और समाज के सबसे अधिक आवश्यक वर्गों की मदद की। यह कार्यक्रम भगवान के प्रेम और सेवा की उदाहरणीय प्रकटि है, जो लोगों के दिलों में सदैव याद रहेगा। हर वर्ष जगद्गुरु कृपालु परिषद् द्वारा कई सामाजिक और धार्मिक कार्य किये जाते है ताकि लोगो की जरूरते पूरी हो सके। जगद्गुरु कृपालु परिषद् बच्चो से लेके बड़े बूढ़ो तक के हितो में काम करता है ताकि उनकी निजी जरूरतों को पूरा किया जा सके और उन्हें एक अच्छा जीवन दिया जा सके । अगर आप इन कार्यो के बारे में और भी जानकारी लेना चाहते है तो हमारे वेबसाइट www.jkp.org.in पर आज ही जा के देखे।


Saturday, August 26, 2023

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज: भारतीय भक्ति की आध्यात्मिक धारा

kripalu ji maharaj

लोग प्रश्न करते हैं कि हमारे भारत में भगवान् की भक्ति तो बहुत दिखाई पड़ती है, घर-घर में मन्दिर हैं और यहाँ तो मरने के बाद भी राम नाम सत्य है बोला जाता है फिर इतना अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार, पापाचार क्यों है ?

इनको पता ही नहीं है भक्ति करनी किसको है? सब इन्द्रियों से भक्ति करते हैं- आँख से, कान से, रसना से, पैर से, हाथ से । निन्यानवे प्रतिशत लोग, इन्द्रियों से भक्ति करते हैं। पूजा- हाथ से, दर्शन- मन्दिर में जाकर मूर्ति के या सन्तों के आँख से, श्रवण- कान से भागवत सुन रहे हैं, रामायण सुन रहे हैं, मुख से नाम कीर्तन, गुण कीर्तन पुस्तकें पढ़ते हैं वेद मंत्र या गीता या भागवत या गुरु ग्रन्थ साहब कोई पुस्तक पाठ करते हैं रसना से, पैर से चारों धाम की मार्चिंग करते हैं। वैष्णो देवी जा रहे हैं, कहीं बद्रीनारायण जा रहे हैं ये सब नाटक करते हैं हम लोग। ये सब साधना नहीं है ये तो जैसे जीरो में गुणा करो एक करोड़ से तो भी जीरो आयेगा ऐसे ही इन्द्रियों के द्वारा जो भक्ति की जाती है भगवान् उसको लिखते ही नहीं, नोट नहीं करते वो तो व्यर्थ की है बकवास है, अनावश्यक शारीरिक श्रम है। उपासना, या भक्ति या साधना मन को करनी है।

बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही है। हम मन को तो संसार में लगाये हुये हैं; माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति, धन, प्रतिष्ठा इन सब चीज़ों में मन को लगाये हैं। तो भगवान् की उपासना कहाँ हो रही है। ये नाम कीर्तन, गुण कीर्तन, लीला कीर्तन तो बच्चों की बातें है जैसे कोई, छोटे से बच्चे को कोई पाठ पढ़ावे जबानी लेकिन तत्वज्ञान जिसको हो, थ्योरी की नॉलेज हो तो उसको पहला सबक ये याद करना है, कि मन से भक्ति करनी है। मन से। प्यार तो सब जानते हैं, पशु पक्षी भी जानते हैं, मनुष्य की कौन कहे; जैसे माँ से, बाप से, बीबी से, पति से, धन से अपने शरीर तक से आप लोग प्यार करते हैं ऐसे ही तो करना है भगवान् से। कोई नया मन नहीं लाना है, कोई नया तरीका नहीं लिखा है, शास्त्र वेद में। जगगुरु श्री कृपालु जी महाराज का चैलेन्ज है, सब वेद शास्त्र मैं जानता हूँ । कोई नई बात नहीं लिखी कहीं। जैसे प्यार संसार से करते हैं ऐसे ही भगवान् से करना है।

तो सबके दुःख में रोये और अपने दुःख में अलग रोये बस रोते रोते मर गये। भगवान् की भक्ति करने का तो प्रश्न ही नहीं आया। क्योंकि हमने किया ही नहीं मन से भक्ति  हमने तो जप किया, गुरु जी ने कहा, ऐ तेरे कान में एक मंत्र बोल रहा हूँ, इसकी एक माला जप लिया कर। इन बाबाओं से पूछो कि तुम क्या दे रहे हो हमको ? अरे पूछो, हिम्मत करो, अपने गुरु से पूछो। तुमने क्या दिया हमको ? मंत्र । क्या है इस मंत्र में ? क्या मतलब है इस मंत्र का ? हे भगवान्! आपको नमस्कार है, हे भगवान्! आपकी शरण में हैं। तो ये जो आप मंत्र दे रहे हैं इसको हम हिन्दी में बोलें, पंजाबी में बोलें, बंगाली में बोलें भगवान् खुश नहीं होंगे ? ये राम और श्याम जो नाम भगवान् के हम सुनते हैं इससे वो बड़ा है ? हाँ, हाँ बड़ा है। कैसे बड़ा है, क्यों बड़ा है ? वो हमारे गुरु परम्परा से आया है। अच्छा ! तो उसमें विशेष शक्ति होगी ? हाँ, अब समझे तुम। अच्छा कि जब वो मंत्र आपने कान में दिया तो हमारे ऊपर तो बड़ा प्रभाव तो गुरु जी, ये बताओ पड़ना चाहिये, अरे मामूली से इलैक्ट्रिक सिटी को हम छू लेते हैं तो हालत खराब हो जाती है और आपने कान में मंत्र दिया तो उसका असर होना चाहिये हमारे ऊपर वो तो हुआ नहीं। हम तो और आसक्त होते जा रहे हैं संसार में। पहले अकेले थे, अब एक बीबी आ गई, अब एक बच्चे दो बच्चे हो गये, तो और अटैचमेन्ट हमारा बढ़ रहा है। आपका मंत्र कहाँ गया ? तो तुम्हारा बर्तन खराब है। तो हमारा पात्र खराब है, तो गुरुजी आपका दिमाग खराब है जो आपने दिया मंत्र। पहले बर्तन बनाते। अरे हम ए, बी, सी, डी नहीं जानते और हमको लॉ क्लास में दाखिला दे दिया। क्या पढ़ेंगे हम ? आपने धोखा दिया! कोई पूछने वाला नहीं, सब डरते हैं अपने-अपने गुरु से । और गुरु जी ने कहा है- चुप बोलना नहीं, बस पूजा किया करना हमारी।

ये अन्त:करण शुद्धि के बाद, गुरु देता है मंत्र। और मंत्र में शक्ति देता है और शक्ति देने से तत्काल भगवत्प्राप्ति, माया निवृत्ति सब काम खतम। ये शास्त्र वेद का सिद्धान्त है। एक बहुत बड़े पादरी ने हमसे पूछा कि आपके कितने लाख शिष्य हैं? हमने कहा एक भी नहीं । आप जगद्गुरु हैं, ओरिजनल जगद्गुरु । हाँ हाँ, वो तो बना दिया ओरिजनल जगद्गुरु, काशी विद्वत् परिषत् ने लेकिन हम गलत काम नहीं करते। किसको शिष्य बनावें, कोई पात्र मिले तब न। लखपति, करोड़पति को बनावे; कलैक्टर, कमिश्नर, गवर्नर को बनावें; किस को बनावें ? पहले पात्र बनाओ, तब कोई दिव्य सामान उसमें दिया जा सकता है।

तो हम लोगों के गुरुओं ने सब बिगाड़ दिया और कह दिया- ये पाठ करो, ऐसे पूजा कर लो, ऐसे जप कर लो, बस हो जायेगा तुम्हारा काम। इससे काम नहीं बनेगा, आप लोग नोट कर लो। आँसू बहाकर भगवान् से उनका दर्शन, उनका प्रेम माँगना होगा। ये जो कीर्तन करते हैं आप लोग न 'हरे राम हरे राम,' 'हे हरि ! हे राम !' ये रोकर बोलो, रोकर पुकारो उनको और कुछ माँगो मत। एक बड़ी बीमारी हम लोगों में, ये है जो भगवान् की भक्ति करते भी हैं थोड़ी बहुत, वो संसारी कामना लेकर करते हैं, हमारा ये काम हो जाय, हमारा ये काम बन जाय संसारी। इसका मतलब तुम समझते हो संसार में सुख है फिर क्यों बोलते हो, राम नाम सत्य है ? संसार में सुख मानते हो तो भगवान् के पास क्यों जा रहे हो? संसार की भक्ति करो। भगवान् में सुख है अगर मानते हो तो भगवान् की भक्ति करो। माँगो संसार और भगवान् के पास जा के। तो क्यों जी, संसार में कोई मिठाई की दुकान पर चप्पल तो नहीं माँगता- ऐ! एक जोड़ी चप्पल दे दे। और संसार में तुमको सुख समझ में आ रहा है तो संसार के पास जाओ। तो हमने समझा ही नहीं अभी क ख ग घ कि मन को ही भक्ति करनी है। एक बार राम मत कहो श्याम मत कहो, राधे मत कहो, लेकिन मन का अटैचमेन्ट भगवान् में कर दो। भगवत्प्राप्ति हो जायेगी। और अगर मन का अटैचमेन्ट नहीं किया, तो इन्द्रियों से- बहुजन्म करे यदि श्रवण कीर्तन तथू ना पाय कृष्णपदे प्रेमधन । गौरांग महाप्रभु ने कहा, हजारों जन्म तुम राम राम राम राम करते रहो कुछ नहीं मिलेगा। करके देख लो संसार का अटैचमेन्ट जाता है क्या इससे। ये तो जबान से बोल रहे हो, मन तो संसार में है।

मन से स्मरण मेरा हो और इन्द्रियों से वर्क संसार का हो। हम उल्टा करते हैं इसका। मन का अटैचमेन्ट संसार में हो और इन्द्रियों का वर्क भगवान् का हो, क्या मिलेगा ? अरे दस साल हो गये करते करते बीस साल, अरे दस जन्म हो जायें क्या मिलेगा ? तुम साधना ही उल्टी कर रहे हो। भगवान् के द्वारा ही अन्तःकरण शुद्ध होगा। ये मन जब भगवान् में लगेगा तब अन्तःकरण शुद्ध होगा और तब ये दैवी सम्पत्तियाँ आयेंगी- दया करना, परोपकार जो कुछ भी ये दैवी सम्पत्तियाँ है, जिसको आप लोग अच्छा आचरण कहते हैं, ये तब आयेगा जब आपका अन्तःकरण शुद्ध होगा और इसके शुद्ध करने के लिये भगवान् का रूपध्यान करके आँसू बहाना पड़ेगा। रूपध्यान, आँसू, ये दो शब्द याद रखो। भगवान् का रूपध्यान! क्योंजी ? भगवान् को देखा नहीं। अरे! बड़ा अच्छा है नहीं देखा, अगर देखोगे तो नास्तिक हो जाओगे क्योंकि भगवान् का असली रूप तो तुम देख नहीं सकते।

आपकी आँख प्राकृत है, मटीरियल है, पंचमहाभूत की है और भगवान् दिव्य हैं, उनका शरीर दिव्य है। इसलिये पहले बर्तन बनाओ, अन्तःकरण को, इन्द्रियों को दिव्य बनाओ तब भगवान् का दर्शन कर सकोगे। तो भगवान् का पहले मन से रूप बनाओ या कोई फोटो रख लो, उसकी हैल्प ले लो, या मूर्ति रख लो या मन से बनाओ। सबसे अच्छा है मन से। क्यों ? इसलिये, जैसे मान लो तुम्हारी इच्छा है भगवान् को हीरे के हार पहनाते अगर हमारे पास पैसा होता तो, अब हीरे का हार पहनाने के लिये दस अरब रुपया चाहिये, वो कहाँ से आयेगा हमारे पास दस लाख भी नहीं। हाँ, आँख बन्द करो और श्यामसुन्दर को खड़ा करो और ये पहना दिया हीरा। जो मन में आये शृंगार करो भगवान् का। भगवान् ये नहीं कहते ऐसा ही करो। तुम जैसा भी करो उसको हम असली मान लेगें, ये भगवान् का वाक्य है।

तो इस प्रकार रूपध्यान करो फिर नाम लो। पहले रूपध्यान फिर नाम यानी पहले मन फिर इन्द्रियाँ । नाम भी इन्द्रियों से लो, ठीक है, है तो काम में लो उसको भी। कीर्त्तन करो लेकिन स्मरण सबसे पहले, क्योंकि मन को ही तो ठीक करना है पाप तो मन में है; आँख में, कान में, पाप नहीं रहा करता । अन्तःकरण को शुद्ध करना है, मन को शुद्ध करना है। इसलिये मन से रूपध्यान करते हुये रोकर, उनको पुकारना है प्लस दूसरी साधना जहाँ भी जाओ, कहीं भी जाओ हमारे साथ, हमारे हृदय में बैठे हैं ये रियलाइज़ करो। रियलाइज़ करो। एक मिनिट को नहीं, सदा हमारे साथ हमारे अन्दर बैठे हैं।

देखो ! एक अरबपति अकड़ के क्यों चलता है। बैंक में एक अरब है जेब में तो नहीं है। अरे, तो उससे क्या हुआ बैंक में तो है। हाँ, तो हमारे हृदय में श्यामसुन्दर बैठे हैं, ये फीलिंग सदा होनी चाहिये जैसे अपनी फीलिंग आपको होती है, मैं हूँ, मैं हूँ, ऐसे ही मेरा बाप श्यामसुन्दर, मेरे प्राणबल्लभ श्यामसुन्दर, अन्दर बैठे हैं, फैक्ट है। 


कोई पाप करते हैं जब आप तो पहले क्या करते हैं? प्लानिंग, पाप करने की बात सोचते हैं। तो सोचते समय ये क्यों नहीं सोचते कि वो नोट हो रहा होगा अन्दर, वो बैठा हुआ है नोट करता है। आइडियाज़, वर्क नहीं। वर्क का कोई मूल्य नहीं है। भगवान् कहते हैं करोड़ों मर्डर कर अर्जुन हम नोट नहीं करेंगे। तेरा मन क्या कर रहा है ये नोट करेंगे। हनुमान ने करोड़ों ब्रह्महत्या की, लंका में राम ने नोट नहीं किया, क्योंकि उसका मन राम के पास था। सब कुछ निर्भर करता है मन पर।

तो रूपध्यान करना है और हर जगह हमेशा भगवान् को अपने साथ, महसूस करना है। पहले एक-एक घण्टे में करो, हाँ अन्दर बैठे हैं। हाँ बैठे हैं। बोलो मत, फील करना है, अन्दर से महसूस करो। फिर एक घण्टे से आधा घण्टा, एक मिनिट, एक सैकेण्ड पर आ जाओ। अन्दर बैठे हैं, अन्दर बैठे हैं। हर समय आप नशे में रहेंगे और वो अनन्त कोटि ब्रह्माण्डनायक सर्वशक्तिमान् भगवान् अन्दर बैठे हैं, मेरे बराबर कौन है, ऐसी फीलिंग होगी आपको। कोई पाप करने जब आप चलेंगे, तो धक् होगा अन्दर, अरे! वो नोट कर लेंगे, फिर कृपा कैसे करेंगे वो, कि हमसे चोरी करता है, हम अन्दर बैठे हैं और तू पाप की बात सोच रहा है। तो हम पाप नहीं कर सकेंगे।


तो हर समय भगवान् को सर्वत्र महसूस करना एक साधना ये और एक एकान्त में जो समय मिले, बैठकर भगवान् का रूपध्यान करके और रोकर उनका नाम गाओ, गुण गाओ, लीला गाओ सब ठीक इससे अन्त:करण शुद्ध होगा जब पूर्ण शुद्ध हो जायेगा, पूर्ण वैराग्य हो जायेगा संसार से ।

बाप मर गया, माँ मर गयी, बेटा मर गया, कोई मर गया, हाँ कोई फीलिंग नहीं। एक हजार गाली दिया, पड़ोसी ने कोई फीलिंग नहीं, जब इस स्टेज पर आप आ जायेंगे तब फिर गुरु आपको स्वरूप शक्ति देगा। तब देगा ये । जैसे- आप अपने कमरे में, मकान में सब फिटिंगकर लीजिये रॉड लगा दीजिये, पंखे लगा दीजिये अब लेकिन कुछ हुआ नहीं। अरे! तो क्या होता पॉवर हाउस ने पॉवर तो दिया ही नहीं । अब पॉवर हाउस से तार जोड़ दिया मैकेनिक ने आ के। अहा ! लाइट भी हो गई, पंखे भी चल गये। तो ऐसे ही जब गुरु कान फूँकेगा, मंत्र देगा, वो चाहे छू ले, चाहे चिपटा ले, चाहे कान में दे तुरन्त माया गई, दिव्यानन्द मिला सदा को, भगवद्दर्शन हुआ सदा को। गुरु जी ने खाली एक अक्षर बोल दिया और वो गुरु हो गया, हम उनके चरण धोके पीयें, वो चाहे राक्षस हो, घोर पाप कर रहे हों। अरे उन्होंने सबसे पहले हमको धोखा दिया कि तुम चेले हो गये हम गुरु हो गये। क्यों? ये जो हमने कह दिया रामाय नमः, कृष्णाय नमः। ये रामाय नमः, कृष्णाय नमः तो सब जगह लिखा है। गीता, भागवत, पुराण सर्वत्र हम पढ़ लेंगे तुमने क्या दिया हमको ? अगर तुम हमको संसार का वैराग्य देते, भगवान् का अनुराग देते. तो हम समझते कि तुमने कुछ दिया। सब धोखा है इस धोखे से बचिये, और मन से भक्ति कीजिये, तो मन शुद्ध होगा तो अपराध नहीं होगा, तो फिर ये बदनामी नहीं होगी कि हमारे देश में इतनी भक्ति दिख रही है, फिर भी इतना भ्रष्टाचार क्यों है।


निष्कर्ष:
इस प्रकार, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भारतीय भक्ति की आध्यात्मिक धारा के महत्व को समझाया है। उन्होंने बताया है कि हमारे भारत में भगवान् की भक्ति तो होती है, लेकिन उसमें अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार के कारण हमें दुख का सामना करना पड़ता है। उन्होंने बताया कि भक्ति करने के लिए मन को शुद्ध करना आवश्यक है और इन्द्रियों के द्वारा भक्ति करना व्यर्थ है। उन्होंने भक्ति के महत्व को समझाने के लिए रूपध्यान और नाम स्मरण की महत्वपूर्णता बताई है। उनके अनुसार, भगवान् के साथ सदा महसूसी बनाए रखना है ताकि हम पाप करने से बच सकें और अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर सकें। भगवान् को समर्पित और अनुरागी भाव से भक्ति करना ही असली भक्ति है।


वैराग्य क्या है? वैराग्य कब होता है?: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा वैराग्य का स्वरूप

kripalu ji maharaj


प्रायः लोग राग शब्द का अर्थ प्यार ही करते हैं, पर ऐसा नहीं है, राग का अर्थ है मन का लगाव, वह मन का लगाव प्यार से हो या खार से हो। अर्थात् अनुकूल भाव या प्रतिकूल भाव, किसी भी भाव से मन की आसक्ति, आसक्ति ही कहलाएगी और जब न अनुकूल भाव से आसक्ति हो और न प्रतिकूल भाव से आसक्ति हो तभी वैराग्य कहलायेगा ।

स्थूल बुद्धि से यों समझिये कि जब आप किसी प्रिय का चिन्तन करते हैं तो सदा सर्वत्र उसी में मन व्यस्त रहता है, यह कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, कहाँ मिलेगा, बड़ा अच्छा आदमी है, हमारा हितैषी है, हमारा प्रेमी है' इत्यादि । ठीक इसी प्रकार, जिससे आपका द्वेष हो जाय, वहाँ भी सदा सर्वत्र मन व्यस्त रहता है कि वह कहाँ मिलेगा, कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, वह हमारा शत्रु है, अनिष्टकारी है, उसे मारना है, इत्यादि ।

उपर्युक्त रीति से प्यार एवं खार दोनों ही में एक सी स्थिति मन की रहती है। यही प्रमुख कारण है कि अनुकूलभाव से मन को श्यामसुन्दर से एक कर देने वाली गोपियाँ भी भगवत्-स्वरूपा बन गयीं एवं प्रतिकूल भाव से मन को श्यामसुन्दर में एक कर देने वाले कंसादिक भी भगवत्स्वरूप बन गये।

बस, यही अवस्था वैराग्य की है। जैसे, एक माँ अपने खोये हुए पुत्र को मेले में ढूँढ़ती है। वह रोती हुई अपने बच्चे को खोज रही है। उसे एक बच्चा पीछे से दिखाई पड़ा जिसके कपड़े, आयु, कद, जूते आदि उसी के बच्चे के समान थे। वह उसी बच्चे को अपना बच्चा समझ बैठी और 'बेटा-बेटा' कहकर दौड़ी। जब उसका मुख देखा तो वह उसका बेटा न था। बस, उसे उस बेटे से वैराग्य हो गया, अर्थात् वह माँ न तो उस बेटे को प्यार ही करती है कि हमारा बेटा नहीं मिला न सही, चलो इसी से प्यार करें और न तो शत्रुता ही करती है कि 'क्यों रे, मैंने तो सोचा था कि तू मेरा बेटा है, तू पराया क्यों हुआ ? इत्यादि । बस, इसी अवस्था का नाम वैराग्य है।

जैसे, किसी शराबी को शराब के लिये मदिरालय जाना पड़ता है किन्तु मदिरालय के पूर्व कई दुकानें अन्य सामानों की पड़ती हैं। वह उन दुकानों के सामने से तो जाता है, देखता भी जाता है, किन्तु विरक्त है। अर्थात् न तो किसी दुकान पर खड़ा होता है कि चलो मदिरा न सही, इस दुकान पर रसगुल्ला ही खा लें और न तो झगड़ा ही करता  है कि मुझे तो मदिरा चाहिये, तू रसगुल्ला की दुकान क्यों बीच में लगाये बैठा है, इत्यादि। वह सबसे विरक्त होकर अपने मदिरालय के लक्ष्य पर जा रहा है। बस, यही वैराग्य है। इस संसार में सब दुकानों से गुजरता हुआ अपने परमानन्द के केन्द्र भगवान् का दुकान पर ही सीधा जाय, अन्यत्र कहीं भी न राग हो न द्वेष हो ।

यह ध्यान रहे कि जब तक मन ईश्वर के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी राग या द्वेष युक्त (आसक्त) रहेगा, तब तक ईश्वर शरणागति असम्भव है और जब तक संसार में, "न तो यहाँ हमारा आध्यात्मिक सुख है। और न यहाँ हमें बरबस अशान्त करने वाला दुःख ही है, ऐसा ज्ञान परिपक्व न होगा, तब तक वैराग्य भी असम्भव है।

इस परिपक्वता के लिये संसार के स्वरूप पर गम्भीर विचार एवं बार-बार विचार करना होगा, बार-बार विचार से ही दृढ़ता आयेगी। एक बार विचार करने मात्र से काम नहीं बनेगा क्योंकि अनन्तानन्त जन्मों का विपरीत विचार संगृहीत है।

आप लोग सोचते होंगे, जब मन संसार में राग-द्वेष रहित, अलग हो जायगा तब फिर क्या करना अवशिष्ट रह जायगा ? क्योंकि तब तो वासना का निर्माण ही न होगा। जब वासना का निर्माण न होगा तो उसकी पूर्ति में लोभ या अपूर्ति में क्रोधादि की उत्पत्ति ही न होगी, तब फिर अशान्ति या दुःख ही कैसे आ सकेंगे ? फिर शरणागति करने का व्यर्थ प्रयास क्यों किया जाय ?

किन्तु, यह सोचना भोलापन है। क्योंकि, एक तो मन विरक्त होकर वासना न बनावे यह असम्भव है क्योंकि जब तक परमानन्द न प्राप्त हो जायगा, उसकी स्वाभाविक वासना सदा रहेगी ही।

दूसरी बात यह कि राग द्वेष रहित मन क्या निश्चेष्ट पड़ा रहेगा, अर्थात् अपनी क्रिया बन्द कर देगा ? यह तो सर्वथा असम्भव है, क्योंकि कोई भी जीव एक क्षण को भी अकर्ता नहीं रह सकता, यह मैं पूर्व में ही सिद्ध कर चुका हूँ।

तीसरा कारण यह है कि अनन्तानन्त जन्मों के संस्कारों के कारण भी वासना की उत्पत्ति स्वाभाविक है, उसे कोई नहीं रोक सकता। चौथा कारण यह भी है कि जब तक माया का आधिपत्य जीव पर रहेगा, तब तक मायिक-वासना बनाना, यही जीव का स्वभाव होगा। पाँचवाँ कारण यह है कि ईश्वर प्राप्ति से ही जीव की कामना पूर्ति हो सकती है अर्थात् तृप्ति हो सकती है, उसके पूर्व असम्भव है। जैसे, प्यासे हिरन को जब तक वास्तविक जल न मिलेगा, वह मरुस्थलीय मिथ्या-जल से विरक्त भी हो जाय तो प्यास से विरक्त नहीं हो अतएव ईश्वर-शरणागति तो करनी ही पड़ेगी। सकता।

स्थूल दृष्टि से यहाँ समझ लीजिये कि यदि आप अपने घर जा रहे हैं। एवं मार्ग भूल गये हों और एक व्यक्ति आपको यह समझा दे कि यह मार्ग आपके घर का नहीं है क्योंकि आपके घर के मार्ग में अमुक पहिचान मिलती है, और आप समझ भी जायँ कि तुम ठीक कहते हो, मैं गलती पर था, किन्तु इतने जानने से आप घर न पहुँच सकेंगे। 'हमारा सांसारिक पदार्थों द्वारा वासनापूर्ति का मार्ग गलत है', यह ज्ञान तो हो गया जिसके परिणामस्वरूप वैराग्य भी हो गया किन्तु फिर, ‘हमारे परमानन्द-स्वरूप ईश्वरीय घर का कौन-सा मार्ग है', यह जानना होगा। इतना ही नहीं, उस मार्ग से चल कर घर भी पहुँचना होगा, तभी अभीष्ट सिद्धि होगी। अमुक-

कुछ लोग कहते हैं कि व्यर्थ में वैराग्य के चक्कर में क्यों पड़ा जाय, सीधे-सीधे ईश्वर में अनुराग करो बस, वैराग्य अपने आप हो जायगा। किन्तु विचारणीय यह है कि ईश्वर में अनुराग करोगे किससे एवं किसलिये करोगे? उत्तर यही मिलेगा कि मन से अनुराग करेंगे। और चूँकि ईश्वर में सुख है और सुख ही हमारा अभीष्ट है, इसलिये अनुराग करेंगे। परन्तु बुद्धि तत्क्षण खंडन कर देगी कि चलो हम मान लेते हैं कि ईश्वर में सुख होगा किन्तु संसार में भी तो सुख है। इतना ही नहीं, संसार का सुख करतलगत है, प्रत्यक्ष है, अनुभूत है, उसे छोड़कर अन्धेरे में क्यों पड़ें ? तब फिर मन का अनुराग ईश्वर में कैसे होगा ? कहना सुगम है, करना कठिन हुआ करता है। ऐसे भोले विचारक सोचें कि मरुस्थल के उड़ते हुए जिन बालू के कण को, सूर्य के प्रकाश में देखकर हिरन को यह विश्वास हो जाता है। कि वहाँ पानी अवश्य है, वह मर कर भी अपने विश्वास को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार 'संसार में सुख है', यह विश्वास जब तक बुद्धि में जमा है, अनन्तबार मर कर भी हम अपना निश्चय नहीं बदल सकते। यही आशा बनी रहेगी कि अब सुख मिलेगा, अब सुख मिलेगा।

अतएव यह कहना अपने आपको धोखे में डालना मात्र है कि सीधे मन भगवान् में लगा दो, बस, सब काम ठीक हो जायगा। मन लगाने वाला कौन होगा? आप जानते हैं मन का शासक कौन है ?

अब आप सोचिये कि जब एक दर्शक विराट् रूप में देखकर डर रहा है तो सब विभोर कैसे होंगे? विभोर तो वे ही हुए जो अधिकारी थे, भक्त थे। बस, वे ही उन्हें देख सके |

अब आप समझ गये होंगे कि मन भगवान् में अपने आप अवतारकाल में भी नहीं लगेगा, फिर अवतारकाल न रहने पर तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता। यदि मैं स्पष्ट कहूँ तो यह कह सकता हूँ कि यदि आप रामकृष्णादि भगवान् को समक्ष देख लें तो विभोर होने की बात तो दूर रही, शायद नास्तिक भी हो जायें, क्योंकि जब तक आप यह रहस्य न जान लें कि उनका वास्तविक रूप एवं कर्म दिव्य हैं तब तक प्राकृत दृष्टि में दीखने वाले प्राकृत शरीर एवं प्राकृत कर्म में कैसे ईश्वरीय भावना बना सकेंगे ? अस्तु, हमें किसी पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होगी।

निष्कर्ष:
इस ब्लॉग में, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने वैराग्य के स्वरूप को समझाया है। वे कहते हैं कि वैराग्य का अर्थ मन की आसक्ति से मुक्त होना है, चाहे वह प्रेम से हो या द्वेष से। वैराग्य में मन का स्थिरीकरण और दिव्य भावना को स्थायी बनाना आवश्यक है। वे बताते हैं कि वैराग्य द्वारा ही हम आत्म-स्वरूप को शुद्ध करके आनंदमय जीवन का अनुभव कर सकते हैं। उन्होंने यह भी दिखाया है कि वैराग्य के द्वारा मन को संसार के राग-द्वेष से मुक्त करना संभव है, और भगवान् की शरण में स्थिर भाव से रहने से हम आत्मिक सुख प्राप्त कर सकते हैं।

उन्होंने विचारणीय यह भी बताया है कि वैराग्य वासना के निर्माण से नहीं रोका जा सकता, क्योंकि जन्मों के संस्कारों के कारण वासना स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। इसलिए वैराग्य के द्वारा मन को राग-द्वेष से ऊपर उठाकर भगवान् की शरण में स्थिरता से रहने में सफलता हो सकती है। वैराग्य के माध्यम से हम अपने परमानन्द स्वरूप ईश्वर की शरण में पहुंच सकते हैं। यह एक दुर्लभ अवसर है जो हमें संसार के फंदे से मुक्त कर सकता है। वैराग्य की ध्यान रखते हुए हमें ईश्वरीय मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, जिससे हम आत्मिक सुख को प्राप्त कर सकें।

इस ब्लॉग ने हमें वैराग्य के महत्वपूर्ण सिद्धांतों के प्रति जागरूक किया है और हमें अपने आत्म-स्वरूप की खोज में प्रेरित किया है। यह ज्ञान हमें सुखी और शांतिपूर्ण जीवन जीने के मार्ग में मदद करेगा। इस ब्लॉग को पढ़कर हमें स्वयं के विकास में सहायता मिलेगी और हम आनंदमय जीवन का अनुभव कर सकेंगे।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज : आप कौन हैं एवं आप अपना आनन्द चाहते हैं या किसी और का चाहते हैं

jagadguru kripalu ji maharaj

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के उपदेशों के माध्यम से आत्म-स्वरूप की विचारधारा:

अब आप यह विचार करें कि आप कौन हैं एवं आप अपना आनन्द चाहते हैं या किसी और का चाहते हैं। आप कहेंगे कि मैं कौन हूँ यह तो नहीं जानता किन्तु इतना जानता हूँ कि मैं केवल अपना ही आनन्द चाहता हूँ। यदि आप मायिक तत्त्व होते तो मायिक पदार्थों से आपको आनन्द-प्राप्ति हो जाती, किन्तु आप ईश्वर के अंश है अतएव ईश्वरीय दिव्यानन्द से ही आप आनन्दमय हो सकते हैं। तर्कसम्मत सिद्धान्त भी है, साथ ही अनादिकाल के अनुभव से भी सिद्ध है कि यदि मायिक आनन्द से दिव्य जीव को दिव्य आनन्द मिलना होता तो अनन्तानन्त युगों से अब तक मायिक सुख मिलते हुए हम इस प्रकार दुःखी, अशान्त, अतृप्त, अपूर्ण न रहते। यह अनुभव-प्रमाण ही यह बोध कराने में समर्थ है कि हम मायिक नहीं हैं। फिर भी हमें इस तत्त्व पर गम्भीर विचार करना है।

कुछ भोले प्रत्यक्षवादी कहते हैं कि इन्द्रियादि की भाँति आत्मा भी देह का परिणाम है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु बस इन्हीं ४ तत्वों से देह एवं 'मैं' बना है। अर्थ एवं काम दो पुरुषार्थ हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण ही प्रमाण है। इन प्रत्यक्षवादियों में भी कोई देह को, कोई चक्षुरादि को, कोई प्राण को आत्मा मानते हैं, सांसारिक विषय-सुख को ही स्वर्ग एवं वियोगादि दुःख को ही नरकादि मानते हैं।

बाह्य पृथ्वी, आदि महाभूतों में चैतन्य न दीखने से चैतन्य को भूतों का धर्म नहीं कहा जा सकता। यदि कहा जाय कि देहाकार में परिणत भूतों का ही धर्म चैतन्य है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि मृतावस्था देह के रहते चैतन्य नहीं रहता। में

यदि समुदायभूत अवयवी को चैतन्य कहा जाय तो एक अवयव के नष्ट होने पर सब अवयव नष्ट हो जाने चाहिए।

यदि एक-एक अवयव को चैतन्य कहा जाय तो परस्पर सदा विरोध रहेगा एवं ऐसा किसी के अनुभव में नहीं आता। देह के रहने पर ही ज्ञानेच्छादि का प्राकट्य देख कर देह में आत्मभाव मान लेना भोलापन है, क्योंकि काष्ठादि के न होने पर यदि अग्नि प्रकट नहीं दीखता तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि अग्नि तत्त्व ही नहीं है।

यदि भौतिक पदार्थों के अनुभव को चैतन्य कहा जाय तो फिर यह आपत्ति आयेगी कि वे तो विषय हैं। जैसे अग्नि सर्वदहनसमर्थ है पर स्वयं को नहीं जला सकती, नट अपने कंधे पर नहीं बैठ सकता, वैसे ही यदि चैतन्य भौतिक धर्म हो तो भौतिक पदार्थ को विषय नहीं बना सकता। जैसे प्रकाश के अभाव में दीपक की उपलब्धि नहीं होती क्योंकि उपलब्धि दीपक का धर्म नहीं है, वैसे ही आत्मा देह धर्म नहीं है।

इसके अतिरिक्त अनुभव द्वारा भी विचार कीजिये। जब आप जाग्रत में रहते हैं तब ऐसा बोलते हैं कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, आदि। अर्थात् आप मानो इन्द्रियाँ ही हैं । किन्तु जब आप स्वप्नावस्था में स्वप्न बनाने लगते हैं तब, यद्यपि शरीरेन्द्रियाँ आपकी खाट पर पड़ी रहती हैं फिर भी आप स्वप्न में न जाने किस आँख से देखते हैं, सुनते हैं, सूँघते हैं, इत्यादि। इससे सिद्ध होता है कि आप इन्द्रियाँ नहीं हैं, भले ही मन हों, किन्तु जब आप गहरी नींद, सुषुप्ति अवस्था में सो जाते हैं तो कुछ भी अनुभव नहीं करते।

अब यह सिद्ध हो गया कि 'मैं' इन्द्रिय, मन आदि नहीं अपितु ईश्वरीय अनादिकालीन नित्य अंश हूँ। अतएव हमारा सुख ईश्वरीय होगा। संसार में हमारा सुख तर्क एवं अनुभव दोनों के विरुद्ध है। यही कारण है कि यद्यपि मन आदि अनन्त युगों से प्रतिक्षण मुझे यह धोखा देना चाहते हैं कि अब की बार मुझे अमुक वस्तु से सुख मिल जायगा, वह वस्तु मिलती भी है, परन्तु सुख नहीं मिलता। यदि हम मन बुद्धि के सजातीय होते तो उसके बहकाने में आ जाते किन्तु मैं दिव्य तत्त्व हूँ अतएव जब तक नित्यानन्द न प्राप्त हो जायगा तब तक महत्तम मायिक पदार्थों के पाने पर भी 'मैं' आनन्दमय नहीं हो सकता। अब आप संसार सूक्ष्म एवं स्थूल रूप पर विस्तृत मीमांसा करें, क्योंकि यहाँ पर ही मन अटका हुआ है एवं बुद्धि का भी यह निश्चय सा बना हुआ है कि संसार में सुख अवश्य है एवं अवश्य मिलेगा तभी तो हम तदर्थ प्रतिक्षण प्रयत्नशील हैं।

निष्कर्ष:
इस ब्लॉग में, हमने जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के उपदेशों के माध्यम से आत्म-स्वरूप की विचारधारा पर चर्चा की है। इसमें हमने देखा कि हम कौन हैं और हमारी सच्ची ख़ुशियाँ कहाँ से मिलती हैं। हमारे अंतरंग भाग्य के रूप में हम ईश्वर के अंश हैं, और इसलिए हमारी ख़ुशियाँ ईश्वरीय दिव्यानन्द से ही साक्षात्कार की जा सकती हैं। इसके अलावा इस ब्लॉग में भोले प्रत्यक्षवादियों के विचारों का भी विश्लेषण किया है, जो देह को ही आत्मा मानते हैं। हमें बताया गया है कि यदि हम इन्द्रियों के अधीन होते, तो हम भी संसारिक सुखों से पूर्ण होते, लेकिन हमारी ख़ुशियाँ संसारिक विषय-सुखों से नहीं आतीं। इससे सिद्ध होता है कि हम वास्तव में अपने देह और इंद्रियों से अलग हैं। ब्लॉग ने इस विचार को विस्तार से समझाया है कि देहाकार तत्त्व से हमारा संबंध नहीं है, बल्कि हम ईश्वरीय अनादिकालीन नित्य अंश हैं। हमारा आनंद सच्चे ईश्वरीय अनन्त आनंद में है।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के उपदेश हमें संसार में ढूँढने वाली ख़ुशियों के तर्क और अनुभव के विरोध में से बाहर निकलकर सच्चे आनंद की खोज में ले जाते हैं। यह अनुभव और सिद्धान्त हमें यह समझने में सहायता करते हैं कि हम अपनी सच्ची ख़ुशियों का अनुसरण करें और दुर्भाग्यशाली विषय-सुखों में न उलझें। हमारा सच्चा आनंद ईश्वरीय है और इस दिव्य आनंद को प्राप्त करने के लिए हमें अपने आत्म-स्वरूप को विशुद्ध करने और दिव्य भावना को स्थायी बनाने की दिशा में काम करना चाहिए।

Tuesday, August 22, 2023

Unconditional Grace: Showering Mercy Without Expectation

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj
The word grace actually means a useless grace and mercy that is showered or bestowed upon someone without expecting anything in return.

This word his word grace has been used in the Vedas and Puranas and is also a word used in our world. Every religion talks about grace: Hinduism, Christianity, Islam, Sikhism, and Judaism, etc. All religions state unanimously that God showers His grace. What is the meaning of grace and who is authorised to shower it?

The word grace actually means "causeless grace and mercy" that is showered or bestowed upon someone without expecting anything in return. For example, when a child is born the mother serves the child in every possible way. She talks to the child, takes care of all the child's needs, and expects nothing in return. In fact, the child is unable to do anything on its own. Thus, whatever a mother does for her child can be termed grace. However, in reality, this is not true grace at all, nevertheless, this example does serve to some small degree in explaining the meaning of the word.

For example, Lord Krishna's eyes are generally compared to the flower of a lotus. We have seen lotus flowers many times and we also know that it would be incorrect to say that His eyes are like lotus flowers. Leaving aside the Paramahansa, even great personalities such as Lord Brahma and Lord Shankara lose their body consciousness instantly upon seeing the eyes of Shri Krishna; such is the beauty of His eyes! The lotus flower comparison is simply used by Saints to give us some insight as to the beauty of His eyes. The truth is that there is no material object or word to describe such divine beauty.

Similarly, even though the word grace should never be used in the material world, still the example of a mother's selfless love and care for her newborn baby does to some small extent serve as an example, because she gets nothing in return for serving her child. Who knows, that child may grow up to become a thief and steal his own mother's jewellery. There are many such children in this world; I have seen this with my own eyes. Some loot their own homes and run away; they do not even spare their own parents who took such care of them, giving them a good education, etc.

Actually, the true meaning of grace is related to the soul, not the body. A mother can only take care of the body of her child, not its soul. Thus, taking care of the body is in no way related to grace. Grace means "gracing the soul" with God's divine love.


Thus, granting material possessions is not grace; blessing a soul with God's love is grace. Who can bless us with divine love? There are two such personalities. One is God Himself and the other is a God-realised soul. However, we cannot see or experience God with our material senses. There is no particular place or address for Him where we could go and meet Him. It is even impossible for us to just have a glimpse of Him!

A God-realised soul (a Saint) is approachable and moreover, he possesses the same powers as God, because God bestows everything He possesses upon His Devotee (Saint). In this way, God and the Saint, being equal or one and the same, are both Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj by nature and possess unlimited divine treasure; therefore they can grace fallen souls with their LOVE.


Conclusion:
Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj explained the concept of unconditional grace as something that goes beyond simple material exchanges and physical care. The relationship between grace and the soul, where God's heavenly love is given without expecting anything in return material, is what gives grace its essence.
The importance of spiritual development and the divine relationship between God, the God-realized soul, and the searching soul is highlighted by Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj's teachings on unconditional grace. This profound idea inspires people to look for the genuine meaning of grace, which is the most profound manifestation of divine kindness and love bestowed upon the soul without any expectation of reciprocation.


Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj: Our Gurudeva was the personified form of grace.

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj
When it came to giving his grace, Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj was notable for his unflinching impartiality to bestow his grace. He persisted in his chore to extend grace to everyone without exception. This unmatched quality gave the impression that grace permeated every aspect of his being, penetrating both his words and actions. He always guides people through his profound teaching which can help people to live their life in a blissful way.

Showering grace wasn't just work for Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj; it was part of who he was. It evolved into his constant condition, one that persisted whether he was awake or asleep, sitting or standing, or even doing extraterrestrial feats. His example demonstrated how grace was more than simply a habit for him; it was a natural aspect of who he was that he couldn't help but share with others.


It is important to note that Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj's grace was not a limited commodity. It wasn't something that would deteriorate over time or wear out through constant giving. Instead, it appeared as though all people who wanted it received it freely from the divine realm through him, as though his grace came from an endless source.


On the way to spiritual enlightenment, it was essential to comprehend and acknowledge the breadth of Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj's grace. We get closer to achieving our ultimate aim of realising our connection with the divine the minute we completely understand that his own existence was devoted to the endless giving of grace. His life was about demonstrating to us the deep significance of living a life steeped in grace, not about pulling off spectacular miracles or accomplishing worldly achievements.


Conclusion:
Jagadguru Shri Kripalu Ji's life served as a tangible example of the importance and power of divine grace. His life served as a living example of the idea that grace is more than merely a kind deed; it is a state of perpetual union with God. Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj set a magnificent example for all seekers of spiritual truth by exhibiting grace in all facets of his life. May his legacy serve as an inspiration for us to nurture grace within ourselves and to generously extend it to everyone we come in contact with on our quest for self-discovery.


Saturday, August 19, 2023

GOD AND THE SAINTS CAN ONLY SHOWER GRACE AND NOTHING ELSE

kripalu maharaj
Let us consider the case of a Saint. Prior to the attainment of God-realisation, a Saint performs all kinds of actions, both good and bad, and bears the fruits. However, upon becoming God-realised, he ceases to work.

The scriptures declare that a true Saint has no work to do; he is complete in all respects. However, we do observe that Saints perform all kinds of work. For example, the great devotee Prahlada ruled the entire world for millions of years. Similarly, many other Saints entered into matrimony, had children, and participated. in battles, like Arjuna, etc. All the actions they performed seemed to be material in nature, whereas it is said that a true Saint needs to do nothing at all. Why is this so?

Every individual in this world performs any action only for the attainment of happiness. Having found the source of joy and fulfilment, a Saint no longer works to seek happiness.


However, the scriptures state that a Saint performs all types of actions. Even God when He descends on this planet performs all kinds of actions. Lord Rama stayed on the earth for 11,000 years and Shri Krishna stayed for 130 years. Many Saints remained in this world even after God-realisation and performed all kinds of good and bad actions. However, their actions were all performed by yogamaya, a personal power of God which is beyond Maya. All their actions are therefore performed without attachment and are only done for the benefit of suffering souls like us.

As long as we are under the influence of Maya, we shall continue to have feelings of either love or hate (raag-dvesh) in the world. The root cause of all our suffering is roog-dvesh. However, God is beyond raag-dvesh.


In the Gita, Lord Krishna says,

"I neither love nor hate anyone; I look upon all creatures equally

Similarly, a true Saint neither loves nor hates anyone. He is an embodiment of causeless mercy and grace, therefore whatever he does is only grace and nothing else. It is, however, impossible for us to fully understand and comprehend his graceful nature due to our ignorance.

Observe the behaviour of a mother in this world. She loves and embraces her child, but she also slaps him if he does anything wrong. Her reason for doing so is that she wants her child to become a person of good character, as well as someone who loves God. Thus, what can appear to us as punishment is actually a form of grace, as she only has the best interests of the child in mind. Now consider if a worldly mother can perform an act of grace, then it would only be natural that God and the Saints would do nothing else but grace the suffering souls of this world, though their ways may be strange to us.

Thus, Shri Radha Krishna, as well as Saints have no other aim or desire except to grace. Every action they perform is solely with the aim of bestowing causeless grace and mercy upon suffering souls; to immerse souls in the limitless ocean of divine love by shattering their ignorance and bondage for all eternity. In fact, they endeavour to break our attachment to the material world and take us towards God. 


Shri Krishna killed many demons like Aghasura, Bakasura and Putna, etc. but these actions were all acts of grace because they all attained His divine abode, Goloka, In other words, God can do nothing except shower grace. If He loves someone, it is grace and if He hates or kills someone, this is a form of grace too. If He punishes us and makes us revolve in the 8.4 million species of life, this is also grace. He wants us to realise our mistakes, to take the shelter of Guru and God, and always think favourably of them, so as to avoid spiritual transgressions (namaparadha) and to ultimately attain our goal of God-realisation.Revolving in the cycle of birth and death may be considered the jail of the spiritual government to punish us, the prisoners, so that we fully realise our mistakes and work towards attaining God-realisation

In other words, these personalities only have a single-pointed agenda and that is showering grace upon us.

Similary, a true saint neither loves nor hates. He is an embodiment of causeless mercy and grace, therefore whatever he doe is only grace and nothing else. It is, however, impossible for us to fully understand and comprehend his graceful nature due to our ignorance. 


Conclusion:
Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj teaches that the unchanging intention to bestow grace on humanity is at the core of all heavenly deeds performed by God and Saints. The idea of yogamaya, a heavenly power beyond the scope of common knowledge, is used to explain the idea that God and Saints engage in diverse behaviors that could seem banal or even contrary to their lofty status. The grace of God and the Saints is an all-encompassing power that nurtures, uplifts, and guides us on our journey back to divine realisation, just as a mother's love encompasses both tender care and corrective measures.

Friday, August 18, 2023

Jagadgururu Shri Kripalu Ji Maharaj: Radha Rani is Grace Personified

Daughter President
Kishori Ji is the personified form of grace. She is made of grace from the inside as well as the outside. She has no other work to perform except showering grace. She has no other desire.

Kishori Ji is the personified form of grace. She is made of grace from the inside as well as the outside. She has no other work to perform except showering grace. She has no other desire.

A Deity or statue is made of a single element. It could be wood, iron, stone, terracotta, clay, gold or silver, and so on. The material used to make it is consistent throughout, on the inside as well as the outside. Only one material permeates every part of the Deity, be it the nose, ears, face, limbs, or any other part. If the Deity is carved from stone, for example, then it will be stone all over both inside and outside.

However, this is not the case with the human body which consists of a number of different elements, such as fire, air, water; a divine soul, and so on. Just as a Deity is made entirely of a single element, similarly, there is no difference between Kishori Ji's external form and Her inner soul; all is Kishori Ji Herself and nothing else. Her divine body as well as Her soul is the embodiment of existence (sat), knowledge (chit), and bliss (anand) or sachchidananda.


In contrast, our physical body is made up of the five basic elements earth, water, fire, air, and ether (panchmahabhut), but the soul within this body is divine and a part of God. When the soul leaves the body at the time of death, that body begins to decompose and is immediately burnt or buried, regardless of who that person may have been-your son, father, spouse, etc.

Therefore, just as we consist of two things-the material body and the divine soul- Kishori Ji consists of one. Her body is sat, chit, anand Brahm and Her soul is also the same sat-chit-anand Brahm. In other words, She is the personified form of sat-chit-anand Brahm and nothing else.

The scriptures state that there is no distinction between Her body and Her soul, and therefore, She has been compared to a Deity that is made of a single element from inside as well as outside. Thus, Kishori Ji is like a Deity made up of infinite graciousness, compassion, kindness, and causeless mercy. She can only give grace and nothing else. We have the liberty to choose, we may love or hate or even kill someone.. However, Kishori Ji has no other choice but to bestow grace. God and the Saints (mahapurusha) have no other work except to bestow grace.

Conclusion:
Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj's profound teachings offer a remarkable viewpoint on the divine nature of RADHA RANI, personifying grace in its purest form. According to Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj, Kishori Ji is a manifestation of grace that transcends the boundaries of physical life on the inside as well as the outside. Kishori Ji's divine form and soul are indivisible, embodying the essence of existence, knowledge, and bliss, in contrast to the human body, which is made up of many elements.

Parallel to this, the analogy to a Deity composed of a single constant element functions as a potent metaphor to highlight the coherence of Kishori Ji's outward form and inner divinity. She represents unending mercy, generosity, and compassion and, forever radiates blessings without alternative. The profound understanding that Kishori Ji's primary aim in life is to bestow grace is in harmony with the teachings that God and Saints are essentially beings who wish to share their altruism with others.

With the insights of Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj, we understand the intrinsic nature of grace by Kishori Ji, which also helps us to recognise the unwavering devotion and limitless compassion that permeate her being. We are urged to seek the embrace of grace in the light of these teachings, realising its transformational ability to enrich and illuminate our lives and eventually guide us towards spiritual fulfilment and union with the divine.


जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज: गया साधना शिविर एवं श्राद्ध पूजा

आध्यात्मिक संग्रह के अद्वितीय स्वरूप, परम प्रेम के प्रतीक और भक्तों के दिलों में बसने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अद्वितीय छवि ...