Thursday, January 23, 2025

The Role of Divine Love in Everyday Life: Insights from Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj


Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj explained that divine love is a transformational energy that can significantly enhance our daily lives rather than just being an abstract idea. According to his teachings, divine love, or "Prem," is more than just regular love; it is a profound sense of fulfilment and connection that may help us navigate life's obstacles.

Then foremost, Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj explains that divine love is accessible for everyone's benefit. While worldly love comes with expectations and conditions, divine love is unconditional so it is boundless and all-consuming, extending acceptance, compassion, and love to oneself and to others as well. Thus a spiritually and emotionally fertile environment is created where people can grow. This philosophy inspires one to cultivate a heart full of love through which divine grace flows in life.

Selfless Service as an Expression of Divine Love

Several lessons about selfless service come from the life of Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj. His life was devoted to the service and uplift of others through charitable acts, spiritual guidance, and simply a presence for those in crisis. That very selflessness is a model from which divine love comes to action. Through the deeds and assistance we offer to others, we express our love for them and draw closer to the mobile representative of divine love itself.

In many ways, a service that heals others' lives is a deep spiritual practice. It adds sweetness to our lives by shifting our focus from our own self-centred desires to the ostensible well-being of others, motivating us to feel deeper compassion. This change of perspective becomes imperative for spiritual unfolding, for it brings us onto the same wavelength as the essence of divine love, an essence given to unite rather than to separate.

Forgiveness and Compassion

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj has also discussed the active process of forgiveness and its inherent power. He faced many challenges towards the end of his life but always loved and forgave those who wronged him. This power of forgiveness shows how deep one's spiritual realization may go because true love does not harbor grudges and seeks to restore and uplift.

Forgiveness might be difficult to integrate into our everyday lives, yet it is necessary for spiritual development and inner serenity. We release ourselves from emotional baggage and make room in our hearts for more complete acceptance of divine love when we forgive and let go of grudges.

Surrendering to Divine Will

One more important feature of divine love is that one should surrender to the will of God. Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj taught that by surrendering the ego, we develop a kind of faith in God akin to that of a child. The very act of surrender allows us to receive grace and feel the love that knows no bounds.

This means, that we are an integral part of a much larger tapestry that runs through divine hands. By giving up our desires and expectations, we will create peace while accepting what life offers, convinced that a greater plan is at play.

Living with Divine Love Daily

Nevertheless, Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj not only urged us to live with divine love daily but also counseled us to meditate and pray; and be mindful of divinity within us and around us. This centralizes our thoughts on the God-ness of life. Daily, with the practice of discipline—these very practices train us to perceive divine love pervasively.

In summary, the teachings of Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj explain the importance of divine love in our daily lives. We can live our lives in selfless service, forgiveness, surrendering to divine will, practicing the truth and living a life that is pure love. This journey not only does it help us gain happiness in life, but it helps nurture a more peaceful and caring world. Learning from him, let us imbibe love into the present each moment for oneness and understanding for all.

Wednesday, January 22, 2025

रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ईश्वरीय प्रेम की भूमिका: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अंतर्दृष्टि

 

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा व्यक्त ईश्वरीय प्रेम, केवल एक अमूर्त अवधारणा नहीं है, बल्कि एक परिवर्तनकारी शक्ति है जो हमारे रोज़मर्रा के जीवन को महत्वपूर्ण रूप से बेहतर बना सकती है। उनकी शिक्षाएँ इस बात पर ज़ोर देती हैं कि ईश्वरीय प्रेम, या "प्रेम", साधारण प्रेम की सशर्त और क्षणभंगुर प्रकृति से परे है, जो जुड़ाव और पूर्णता की एक गहन भावना प्रदान करता है जो हमें जीवन की चुनौतियों के माध्यम से मार्गदर्शन कर सकता है।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के दर्शन के मूल में यह विचार है कि ईश्वरीय प्रेम सभी के लिए सुलभ है। सांसारिक प्रेम के विपरीत, जो अक्सर अपेक्षाओं और शर्तों के साथ आता है, ईश्वरीय प्रेम बिना शर्त और सर्वव्यापी है। यह स्वयं और दूसरों के लिए स्वीकृति और करुणा को बढ़ावा देता है, एक पोषण करने वाला वातावरण बनाता है जहाँ व्यक्ति आध्यात्मिक और भावनात्मक रूप से विकसित हो सकते हैं। यह दृष्टिकोण हमें प्रेम से भरा दिल विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करता है, जिससे ईश्वरीय कृपा हमारे जीवन में प्रवाहित हो सके।


ईश्वरीय प्रेम की अभिव्यक्ति के रूप में निस्वार्थ सेवा

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के जीवन से सबसे महत्वपूर्ण सबक निस्वार्थ सेवा का महत्व है। उन्होंने अपना जीवन परोपकारी कार्यों, आध्यात्मिक मार्गदर्शन और ज़रूरतमंदों की मदद के ज़रिए दूसरों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। यह निस्वार्थता इस बात का उदाहरण है कि ईश्वरीय प्रेम किस तरह से कामों में प्रकट होता है। दयालुता और सेवा के कार्यों में शामिल होकर, हम न केवल दूसरों के लिए अपने प्यार को व्यक्त करते हैं, बल्कि ईश्वर के साथ अपने संबंध को भी गहरा करते हैं।


दूसरों की सेवा करने का कार्य एक गहन आध्यात्मिक अभ्यास हो सकता है। यह हमारा ध्यान स्वार्थी इच्छाओं से हटाकर दूसरों की भलाई पर केंद्रित करता है, जिससे सहानुभूति और करुणा बढ़ती है। दृष्टिकोण में यह बदलाव आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमें ईश्वरीय प्रेम के सार से जोड़ता है - एक ऐसा सार जो विभाजित करने के बजाय एकजुट करना चाहता है।


क्षमा और करुणा

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने क्षमा की परिवर्तनकारी शक्ति पर भी ज़ोर दिया। अपने पूरे जीवन में, उन्होंने कई चुनौतियों का सामना किया, फिर भी वे अपने साथ गलत करने वालों से प्यार करने और उन्हें माफ करने की अपनी प्रतिबद्धता में दृढ़ रहे। क्षमा करने की यह क्षमता गहरी आध्यात्मिक अनुभूति का प्रतिबिंब है; यह दर्शाता है कि सच्चा प्यार द्वेष नहीं रखता बल्कि उपचार और उत्थान चाहता है।


हमारे दैनिक जीवन में क्षमा को शामिल करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है लेकिन व्यक्तिगत शांति और आध्यात्मिक विकास के लिए यह आवश्यक है। आक्रोश को त्यागकर और क्षमा को अपनाकर, हम भावनात्मक बोझ से खुद को मुक्त करते हैं और अपने दिलों को पूरी तरह से दिव्य प्रेम प्राप्त करने के लिए खोलते हैं।


ईश्वरीय इच्छा के प्रति समर्पण

ईश्वरीय प्रेम का अनुभव करने का एक और महत्वपूर्ण पहलू ईश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण करना है। जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने सिखाया कि अहंकार को समर्पित करने से हम ईश्वर में बच्चों जैसा भरोसा पैदा कर सकते हैं। यह समर्पण हमें अनुग्रह प्राप्त करने और अपने आस-पास मौजूद असीम प्रेम का अनुभव करने के लिए खोलता है।


व्यावहारिक रूप से, इसका मतलब है कि हम ईश्वरीय हाथों से बुनी गई एक बड़ी टेपेस्ट्री का हिस्सा हैं। अपनी इच्छाओं और अपेक्षाओं को समर्पित करके, हम जीवन को वैसे ही स्वीकार करने में शांति पा सकते हैं जैसे यह सामने आता है, यह भरोसा करते हुए कि काम पर एक बड़ी योजना है।


प्रतिदिन दिव्य प्रेम के साथ जीना

दैनिक जीवन में दिव्य प्रेम को मूर्त रूप देने के लिए, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने ध्यान, प्रार्थना और सचेत जीवन जीने जैसे अभ्यासों को प्रोत्साहित किया। ये अभ्यास हमारे विचारों को हमारे भीतर और हमारे आस-पास दिव्य उपस्थिति पर केंद्रित करने में मदद करते हैं। इन आध्यात्मिक अनुशासनों में लगातार संलग्न होकर, हम अपने जीवन के सभी पहलुओं में दिव्य प्रेम के बारे में गहरी जागरूकता पैदा कर सकते हैं।


अंत में, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की शिक्षाएँ हमारे दैनिक जीवन में दिव्य प्रेम की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करती हैं। निस्वार्थ सेवा को अपनाकर, क्षमा का अभ्यास करके, ईश्वरीय इच्छा के प्रति समर्पण करके और आध्यात्मिक अभ्यासों में संलग्न होकर, हम अपने जीवन को दिव्य प्रेम की अभिव्यक्ति में बदल सकते हैं। यह यात्रा न केवल हमारी व्यक्तिगत खुशी को बढ़ाती है बल्कि एक अधिक दयालु और सामंजस्यपूर्ण दुनिया में भी योगदान देती है। जैसा कि हम उनकी शिक्षाओं पर चिंतन करते हैं, हम हर पल में इस दिव्य प्रेम को मूर्त रूप देने का प्रयास करें, सभी प्राणियों के बीच एकता और समझ को बढ़ावा दें।



Wednesday, January 8, 2025

Shyama Shyam Geet: A Divine Masterpiece by Jagadguru Shripalu Ji Maharaj

 

Shyama Shyam Geet is a divine literary treatise by Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj, laden with the essence of the sweetest form of transcendental bliss, reference brajarasa. Putting together 1008 melodious couplets, this unusual devotional text portrays the most charming sacred secrets between the Divine Couple, Shyama and Shyam. Each verse is filled with potent feelings of divine love, creating the way to ascent into the bliss of devotion and the awakening of spirituality for devotees.

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj has an inimitable capacity for poetic expression that invariably excels the reader in the unparalleled experience of love between Radha and Krishna, and makes this composition an incomparable storehouse of spiritual insights and enlightenment. Shyama Shyam Geet is not just a song; it's a brilliant font of wisdom and quite touching one as well, soothing and promoting the spirits of devotees with its infinite learning.

The Essence of Brajarasa: The Sweetest Divine Bliss

The significance of the Shyama Shyam Geet lies in the ecstatic bhakti towards imagining the conception of brajarasa, which is regarded as the highest and most relish divine bliss. Brajarasa is the unique and selfless love of the gopis of Braj, directed towards Lord Krishna. Such love remains entirely pure, without any conditions or material desires, and becomes the highest form of devotion.

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj has delined divine relationship between Radha and Krishna in a very attractive way. In his opinion, Radha is the personified form of a supreme stage of divine love which even captivates Krishna. This love is so pure and strong that the very Supreme Lord becomes allured to it because of Radha's unselfish devotion. This makes the relationship really an essence of brajarasa where love goes beyond everything and brings a devotee very close to the presence of the Divine Himself.

This is the fitness in spiritual love that worldly love is a common experience is that blissful love of which the devotee's only desire is to serve God and please Him. Enjoying immersion into the great Shyama Shyam Geet, such devotees experience the same divine bliss and selfless love for the couple.

The Oneness and Separation of Shyama and Shyam

The Shyama Shyam Geet has a very important teaching, which is the oneness and simultaneous separateness of Shyama and Shyam. This, of course, is very critical in relating to the particular Fire of Springs in divine love.

Radha is not different from Krishna, but eternally consort of His love, the very glory rendered by His divine love. So deep and so pure is Shyama's love that it subservient Shyam completely to Her devotion. In such a divine bond between Radha and Krishna, the Supreme Lord gets fascinated by Her love and gives Himself up to these beautiful affections.

The beauty of devotion and surrender which is unique to the geography of the Shyama Shyam Geet makes it truly unique as a devotional piece. The greatest selfless love for God can lead even God to become a servant of the devotee's love.

Teachings Aligned with Scriptures

Shyama Shyam Geet is not mere prayer dripping with emotion and self-pity but also very effective teachings of spirituality corresponding to ancient scriptures like Vedas, Puranas, and Upanishads. Saints and scriptures form the basis of the treatise, making it a practical guide for spiritual seekers.

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj's Sshyama Shyam Geet emphasizes that the highest aim of human life is God-realization through bhakti. It contains guidance on selfless love, surrender to God's will, and humility.

By remembering the melodious couplets and brooding over their meanings, devotees can:

  • Purify their heart and liberate themselves from worldly desires.

  • Enlarge their faith in God. 

  • Cultivate unselfish love for Shyama and Shyam. 

  • Experience the bliss of divine love combined with submission.

Each verse of the Shyama Shyam Geet adds to spiritual inspiration whereby devotees can be encouraged to walk along decantation and gain inner peace.

Conclusion:
The Shyama Shyam Geet is a divine masterpiece by Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj. It expresses the sweetest essence of devotional love; spanning 1008 melodious couplets, it captures the sheer spiritual richness of unparalleled love of Radha and Krishna, thus motivating their devotees to cultivate selfless love for God.

This is such an eternal book that is transforming innumerable lives of spiritual seekers towards their goal of God-realization and eternal bliss. Truly, this would be a symphony of divine love, inviting all to this purest touch of devotion-the bliss that is the playground of Shyama Shyam.

Tuesday, September 5, 2023

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज: गया साधना शिविर एवं श्राद्ध पूजा

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आध्यात्मिक संग्रह के अद्वितीय स्वरूप, परम प्रेम के प्रतीक और भक्तों के दिलों में बसने वाले जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अद्वितीय छवि ने सदैव उनके भक्तों के मनोबल को बढ़ावा दिया है। उनके श्री विभूषित संदेश और उपदेशों ने लाखों जीवों के जीवन में नई दिशा दिलाई है। जब वे इस लोक से गोलोक महाप्रयाण करने गए, तो भी उनके भक्तों ने उनकी आत्मा के विदाय रोकने का प्रयास किया और उनकी यात्रा को अपनी श्रद्धांजलि और प्रेम से भर दिया।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की पुण्यतिथि के अवसर पर, बिहार प्रान्त के गया नामक तीर्थ में एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत उनके श्रद्धांजलि और पिंड दान का आयोजन किया गया, जो लौकिक और वैदिक परम्पराओं के अनुसार किए गए। इसके साथ ही, तीन बनाकर दिनों तक चलने वाला साधना शिविर भी आयोजित किया गया, जिसमें भक्तों ने आध्यात्मिक आदर्शों का अनुसरण करते हुए अपने आत्मा की ऊर्जा को नवीनतम स्तर तक पहुँचाने का प्रयास किया।


कार्यक्रम की शुरुआत दिनांक 6 नवम्बर 2014 को फल्गुनदी स्थित अनुष्ठान क देवघाट पर हुई, जहाँ भक्तजन ने पवित्र नदी में स्नान करके अपने अध्यात्मिक साधना की शुरुआत की। उसके पश्चात्, दिनांक 7 नवम्बर 2014 को गया के विष्णुपाद मन्दिर में विशेष पूजा आयोजित की गई, जिसमें भक्तजन ने उनके पादों में अपनी भक्ति और श्रद्धा का प्रकटीकरण किया।


इस अद्वितीय अवसर पर दिनांक 8 नवम्बर 2014 को, अक्षयवट नामक स्थान पर पिंड दान का आयोजन किया गया, जिसमें भक्तों ने अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की और पिंडों के द्वारा उनके स्मरण की यादें ताजगी से महसूस की। इसके साथ ही, दिनांक 7 नवम्बर को एक विशाल शोभा यात्रा भी निकाली गई, जिसमें उनके भक्तजन ने उनके जीवन और उपदेशों के प्रति अपनी आदरभावना और समर्पण को प्रकट किया।


इस पवित्र अवसर पर, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की अमृततत्व से भरपूर शिक्षाएं और आदर्शों का समारोह किया गया। उनकी अनमोल विचारधारा ने भक्तों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी महासमाधि की पुण्यतिथि पर यह आयोजन उनके भक्तों का एक साथ आकर्षित होने का अवसर था, जिसमें वे उनके आदर्शों का अनुसरण करने का संकल्प फिर से पुष्टि करते थे।


इस प्रकार, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की पुण्यतिथि पर गया साधना शिविर और श्राद्ध पूजा का आयोजन करके उनके भक्तों ने उनके आदर्शों का पालन करने का संकल्प फिर से अद्भुत रूप से प्रकट किया। इस अद्वितीय पर्व के माध्यम से, उनके उपदेशों की महत्वपूर्णता और आध्यात्मिक जीवन के मार्गदर्शन की महत्वपूर्णता को हम सभी ने महसूस किया और उनके प्रेम से भरे हुए संदेशों का अनुसरण करने का संकल्प लिया।

जगद्गुरु कृपालु परिषत् द्वारा आयोजित ब्रज में हुए महन्त भोज, साधु भोज एवं विधवा भोज

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जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने वृंदावन में एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम आयोजित किया जिसमें विशेष महंत भोज, साधु भोज और विधवा भोज का आयोजन किया गया। इस कार्यक्रम का आयोजन 11 नवम्बर 2014 को श्यामा श्याम धाम में किया गया था। इस कार्यक्रम के अध्यक्षाओं में सुश्री डॉ. विशाखा त्रिपाठी, सुश्री डॉ. श्यामा त्रिपाठी और सुश्री डॉ. कृष्णा त्रिपाठी शामिल थीं। 

11 नवम्बर 2014 को जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने ब्रज के विशिष्ट विभूतियों के सम्मान में एक विशेष महंत भोज का आयोजन किया। इस कार्यक्रम में ब्रज के महंत, रासाचार्य और वैष्णव समुदाय के प्रमुख सदस्यों का सत्कार किया गया।


12 नवम्बर 2014 को जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने एक विशाल साधु भोज का आयोजन किया, जिसमें 7000 साधुओं को आमंत्रित किया गया था। इस अद्भुत साधु भोज में विभिन्न साधु-संत और धार्मिक गुरुजनों ने भाग लिया और अपने आदर्शों और आशीर्वादों को साझा किया।


14 नवम्बर 2014 को प्रेम मंदिर प्रांगण में एक विशाल विधवा भोज का आयोजन किया गया, जिसमें 4000 विधवाएं शामिल हुईं। इस उपलब्धि के माध्यम से, जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने विधवाओं के प्रति अपनी सामाजिक सहयोगी भावना को प्रकट किया और उनकी सेवा का एक अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत किया।


इसके अतिरिक्त, जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने वृंदावन के नेत्रहीन और कुष्ठरोगियों के आश्रमों में भी 150 बैग दान में दिये, जिनमें दैनिक उपयोग में आने वाली अनेक वस्तुएं और वस्त्र आदि शामिल थे।


भक्तियोग रसावतार भगवदनन्त श्री विभूषित जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की पावन प्रेरणा के साथ ही, जगद्गुरु कृपालु परिषद् के नेतृत्व में ब्रज क्षेत्र में विभिन्न भाँतियों के भोज का आयोजन किया गया। इससे सामाजिक समर्पण और सेवा की उत्कृष्टता का प्रतीक मिलता है।


15 नवम्बर 2014 को जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने "रंगीली महल" आश्रम में 4000 साधुओं के लिए साधु भोज का आयोजन किया। इसके बाद, 16 नवम्बर 2014 को 2000 विधवाओं के लिए विशाल विधवा भोज का आयोजन किया गया।


इस प्रकार, जगद्गुरु कृपालु परिषद् ने अपने सामाजिक और धार्मिक उद्देश्यों के प्रति अपने समर्पण को प्रकट किया और ब्रज क्षेत्र के विभिन्न वर्गों के लोगों के प्रति अपनी गहरी सहयोगी भावना को दर्शाया। इसके माध्यम से उन्होंने भगवान की सेवा में अपने आत्मा को समर्पित किया और समाज के सबसे अधिक आवश्यक वर्गों की मदद की। यह कार्यक्रम भगवान के प्रेम और सेवा की उदाहरणीय प्रकटि है, जो लोगों के दिलों में सदैव याद रहेगा। हर वर्ष जगद्गुरु कृपालु परिषद् द्वारा कई सामाजिक और धार्मिक कार्य किये जाते है ताकि लोगो की जरूरते पूरी हो सके। जगद्गुरु कृपालु परिषद् बच्चो से लेके बड़े बूढ़ो तक के हितो में काम करता है ताकि उनकी निजी जरूरतों को पूरा किया जा सके और उन्हें एक अच्छा जीवन दिया जा सके । अगर आप इन कार्यो के बारे में और भी जानकारी लेना चाहते है तो हमारे वेबसाइट www.jkp.org.in पर आज ही जा के देखे।


Saturday, August 26, 2023

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज: भारतीय भक्ति की आध्यात्मिक धारा

kripalu ji maharaj

लोग प्रश्न करते हैं कि हमारे भारत में भगवान् की भक्ति तो बहुत दिखाई पड़ती है, घर-घर में मन्दिर हैं और यहाँ तो मरने के बाद भी राम नाम सत्य है बोला जाता है फिर इतना अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार, पापाचार क्यों है ?

इनको पता ही नहीं है भक्ति करनी किसको है? सब इन्द्रियों से भक्ति करते हैं- आँख से, कान से, रसना से, पैर से, हाथ से । निन्यानवे प्रतिशत लोग, इन्द्रियों से भक्ति करते हैं। पूजा- हाथ से, दर्शन- मन्दिर में जाकर मूर्ति के या सन्तों के आँख से, श्रवण- कान से भागवत सुन रहे हैं, रामायण सुन रहे हैं, मुख से नाम कीर्तन, गुण कीर्तन पुस्तकें पढ़ते हैं वेद मंत्र या गीता या भागवत या गुरु ग्रन्थ साहब कोई पुस्तक पाठ करते हैं रसना से, पैर से चारों धाम की मार्चिंग करते हैं। वैष्णो देवी जा रहे हैं, कहीं बद्रीनारायण जा रहे हैं ये सब नाटक करते हैं हम लोग। ये सब साधना नहीं है ये तो जैसे जीरो में गुणा करो एक करोड़ से तो भी जीरो आयेगा ऐसे ही इन्द्रियों के द्वारा जो भक्ति की जाती है भगवान् उसको लिखते ही नहीं, नोट नहीं करते वो तो व्यर्थ की है बकवास है, अनावश्यक शारीरिक श्रम है। उपासना, या भक्ति या साधना मन को करनी है।

बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही है। हम मन को तो संसार में लगाये हुये हैं; माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति, धन, प्रतिष्ठा इन सब चीज़ों में मन को लगाये हैं। तो भगवान् की उपासना कहाँ हो रही है। ये नाम कीर्तन, गुण कीर्तन, लीला कीर्तन तो बच्चों की बातें है जैसे कोई, छोटे से बच्चे को कोई पाठ पढ़ावे जबानी लेकिन तत्वज्ञान जिसको हो, थ्योरी की नॉलेज हो तो उसको पहला सबक ये याद करना है, कि मन से भक्ति करनी है। मन से। प्यार तो सब जानते हैं, पशु पक्षी भी जानते हैं, मनुष्य की कौन कहे; जैसे माँ से, बाप से, बीबी से, पति से, धन से अपने शरीर तक से आप लोग प्यार करते हैं ऐसे ही तो करना है भगवान् से। कोई नया मन नहीं लाना है, कोई नया तरीका नहीं लिखा है, शास्त्र वेद में। जगगुरु श्री कृपालु जी महाराज का चैलेन्ज है, सब वेद शास्त्र मैं जानता हूँ । कोई नई बात नहीं लिखी कहीं। जैसे प्यार संसार से करते हैं ऐसे ही भगवान् से करना है।

तो सबके दुःख में रोये और अपने दुःख में अलग रोये बस रोते रोते मर गये। भगवान् की भक्ति करने का तो प्रश्न ही नहीं आया। क्योंकि हमने किया ही नहीं मन से भक्ति  हमने तो जप किया, गुरु जी ने कहा, ऐ तेरे कान में एक मंत्र बोल रहा हूँ, इसकी एक माला जप लिया कर। इन बाबाओं से पूछो कि तुम क्या दे रहे हो हमको ? अरे पूछो, हिम्मत करो, अपने गुरु से पूछो। तुमने क्या दिया हमको ? मंत्र । क्या है इस मंत्र में ? क्या मतलब है इस मंत्र का ? हे भगवान्! आपको नमस्कार है, हे भगवान्! आपकी शरण में हैं। तो ये जो आप मंत्र दे रहे हैं इसको हम हिन्दी में बोलें, पंजाबी में बोलें, बंगाली में बोलें भगवान् खुश नहीं होंगे ? ये राम और श्याम जो नाम भगवान् के हम सुनते हैं इससे वो बड़ा है ? हाँ, हाँ बड़ा है। कैसे बड़ा है, क्यों बड़ा है ? वो हमारे गुरु परम्परा से आया है। अच्छा ! तो उसमें विशेष शक्ति होगी ? हाँ, अब समझे तुम। अच्छा कि जब वो मंत्र आपने कान में दिया तो हमारे ऊपर तो बड़ा प्रभाव तो गुरु जी, ये बताओ पड़ना चाहिये, अरे मामूली से इलैक्ट्रिक सिटी को हम छू लेते हैं तो हालत खराब हो जाती है और आपने कान में मंत्र दिया तो उसका असर होना चाहिये हमारे ऊपर वो तो हुआ नहीं। हम तो और आसक्त होते जा रहे हैं संसार में। पहले अकेले थे, अब एक बीबी आ गई, अब एक बच्चे दो बच्चे हो गये, तो और अटैचमेन्ट हमारा बढ़ रहा है। आपका मंत्र कहाँ गया ? तो तुम्हारा बर्तन खराब है। तो हमारा पात्र खराब है, तो गुरुजी आपका दिमाग खराब है जो आपने दिया मंत्र। पहले बर्तन बनाते। अरे हम ए, बी, सी, डी नहीं जानते और हमको लॉ क्लास में दाखिला दे दिया। क्या पढ़ेंगे हम ? आपने धोखा दिया! कोई पूछने वाला नहीं, सब डरते हैं अपने-अपने गुरु से । और गुरु जी ने कहा है- चुप बोलना नहीं, बस पूजा किया करना हमारी।

ये अन्त:करण शुद्धि के बाद, गुरु देता है मंत्र। और मंत्र में शक्ति देता है और शक्ति देने से तत्काल भगवत्प्राप्ति, माया निवृत्ति सब काम खतम। ये शास्त्र वेद का सिद्धान्त है। एक बहुत बड़े पादरी ने हमसे पूछा कि आपके कितने लाख शिष्य हैं? हमने कहा एक भी नहीं । आप जगद्गुरु हैं, ओरिजनल जगद्गुरु । हाँ हाँ, वो तो बना दिया ओरिजनल जगद्गुरु, काशी विद्वत् परिषत् ने लेकिन हम गलत काम नहीं करते। किसको शिष्य बनावें, कोई पात्र मिले तब न। लखपति, करोड़पति को बनावे; कलैक्टर, कमिश्नर, गवर्नर को बनावें; किस को बनावें ? पहले पात्र बनाओ, तब कोई दिव्य सामान उसमें दिया जा सकता है।

तो हम लोगों के गुरुओं ने सब बिगाड़ दिया और कह दिया- ये पाठ करो, ऐसे पूजा कर लो, ऐसे जप कर लो, बस हो जायेगा तुम्हारा काम। इससे काम नहीं बनेगा, आप लोग नोट कर लो। आँसू बहाकर भगवान् से उनका दर्शन, उनका प्रेम माँगना होगा। ये जो कीर्तन करते हैं आप लोग न 'हरे राम हरे राम,' 'हे हरि ! हे राम !' ये रोकर बोलो, रोकर पुकारो उनको और कुछ माँगो मत। एक बड़ी बीमारी हम लोगों में, ये है जो भगवान् की भक्ति करते भी हैं थोड़ी बहुत, वो संसारी कामना लेकर करते हैं, हमारा ये काम हो जाय, हमारा ये काम बन जाय संसारी। इसका मतलब तुम समझते हो संसार में सुख है फिर क्यों बोलते हो, राम नाम सत्य है ? संसार में सुख मानते हो तो भगवान् के पास क्यों जा रहे हो? संसार की भक्ति करो। भगवान् में सुख है अगर मानते हो तो भगवान् की भक्ति करो। माँगो संसार और भगवान् के पास जा के। तो क्यों जी, संसार में कोई मिठाई की दुकान पर चप्पल तो नहीं माँगता- ऐ! एक जोड़ी चप्पल दे दे। और संसार में तुमको सुख समझ में आ रहा है तो संसार के पास जाओ। तो हमने समझा ही नहीं अभी क ख ग घ कि मन को ही भक्ति करनी है। एक बार राम मत कहो श्याम मत कहो, राधे मत कहो, लेकिन मन का अटैचमेन्ट भगवान् में कर दो। भगवत्प्राप्ति हो जायेगी। और अगर मन का अटैचमेन्ट नहीं किया, तो इन्द्रियों से- बहुजन्म करे यदि श्रवण कीर्तन तथू ना पाय कृष्णपदे प्रेमधन । गौरांग महाप्रभु ने कहा, हजारों जन्म तुम राम राम राम राम करते रहो कुछ नहीं मिलेगा। करके देख लो संसार का अटैचमेन्ट जाता है क्या इससे। ये तो जबान से बोल रहे हो, मन तो संसार में है।

मन से स्मरण मेरा हो और इन्द्रियों से वर्क संसार का हो। हम उल्टा करते हैं इसका। मन का अटैचमेन्ट संसार में हो और इन्द्रियों का वर्क भगवान् का हो, क्या मिलेगा ? अरे दस साल हो गये करते करते बीस साल, अरे दस जन्म हो जायें क्या मिलेगा ? तुम साधना ही उल्टी कर रहे हो। भगवान् के द्वारा ही अन्तःकरण शुद्ध होगा। ये मन जब भगवान् में लगेगा तब अन्तःकरण शुद्ध होगा और तब ये दैवी सम्पत्तियाँ आयेंगी- दया करना, परोपकार जो कुछ भी ये दैवी सम्पत्तियाँ है, जिसको आप लोग अच्छा आचरण कहते हैं, ये तब आयेगा जब आपका अन्तःकरण शुद्ध होगा और इसके शुद्ध करने के लिये भगवान् का रूपध्यान करके आँसू बहाना पड़ेगा। रूपध्यान, आँसू, ये दो शब्द याद रखो। भगवान् का रूपध्यान! क्योंजी ? भगवान् को देखा नहीं। अरे! बड़ा अच्छा है नहीं देखा, अगर देखोगे तो नास्तिक हो जाओगे क्योंकि भगवान् का असली रूप तो तुम देख नहीं सकते।

आपकी आँख प्राकृत है, मटीरियल है, पंचमहाभूत की है और भगवान् दिव्य हैं, उनका शरीर दिव्य है। इसलिये पहले बर्तन बनाओ, अन्तःकरण को, इन्द्रियों को दिव्य बनाओ तब भगवान् का दर्शन कर सकोगे। तो भगवान् का पहले मन से रूप बनाओ या कोई फोटो रख लो, उसकी हैल्प ले लो, या मूर्ति रख लो या मन से बनाओ। सबसे अच्छा है मन से। क्यों ? इसलिये, जैसे मान लो तुम्हारी इच्छा है भगवान् को हीरे के हार पहनाते अगर हमारे पास पैसा होता तो, अब हीरे का हार पहनाने के लिये दस अरब रुपया चाहिये, वो कहाँ से आयेगा हमारे पास दस लाख भी नहीं। हाँ, आँख बन्द करो और श्यामसुन्दर को खड़ा करो और ये पहना दिया हीरा। जो मन में आये शृंगार करो भगवान् का। भगवान् ये नहीं कहते ऐसा ही करो। तुम जैसा भी करो उसको हम असली मान लेगें, ये भगवान् का वाक्य है।

तो इस प्रकार रूपध्यान करो फिर नाम लो। पहले रूपध्यान फिर नाम यानी पहले मन फिर इन्द्रियाँ । नाम भी इन्द्रियों से लो, ठीक है, है तो काम में लो उसको भी। कीर्त्तन करो लेकिन स्मरण सबसे पहले, क्योंकि मन को ही तो ठीक करना है पाप तो मन में है; आँख में, कान में, पाप नहीं रहा करता । अन्तःकरण को शुद्ध करना है, मन को शुद्ध करना है। इसलिये मन से रूपध्यान करते हुये रोकर, उनको पुकारना है प्लस दूसरी साधना जहाँ भी जाओ, कहीं भी जाओ हमारे साथ, हमारे हृदय में बैठे हैं ये रियलाइज़ करो। रियलाइज़ करो। एक मिनिट को नहीं, सदा हमारे साथ हमारे अन्दर बैठे हैं।

देखो ! एक अरबपति अकड़ के क्यों चलता है। बैंक में एक अरब है जेब में तो नहीं है। अरे, तो उससे क्या हुआ बैंक में तो है। हाँ, तो हमारे हृदय में श्यामसुन्दर बैठे हैं, ये फीलिंग सदा होनी चाहिये जैसे अपनी फीलिंग आपको होती है, मैं हूँ, मैं हूँ, ऐसे ही मेरा बाप श्यामसुन्दर, मेरे प्राणबल्लभ श्यामसुन्दर, अन्दर बैठे हैं, फैक्ट है। 


कोई पाप करते हैं जब आप तो पहले क्या करते हैं? प्लानिंग, पाप करने की बात सोचते हैं। तो सोचते समय ये क्यों नहीं सोचते कि वो नोट हो रहा होगा अन्दर, वो बैठा हुआ है नोट करता है। आइडियाज़, वर्क नहीं। वर्क का कोई मूल्य नहीं है। भगवान् कहते हैं करोड़ों मर्डर कर अर्जुन हम नोट नहीं करेंगे। तेरा मन क्या कर रहा है ये नोट करेंगे। हनुमान ने करोड़ों ब्रह्महत्या की, लंका में राम ने नोट नहीं किया, क्योंकि उसका मन राम के पास था। सब कुछ निर्भर करता है मन पर।

तो रूपध्यान करना है और हर जगह हमेशा भगवान् को अपने साथ, महसूस करना है। पहले एक-एक घण्टे में करो, हाँ अन्दर बैठे हैं। हाँ बैठे हैं। बोलो मत, फील करना है, अन्दर से महसूस करो। फिर एक घण्टे से आधा घण्टा, एक मिनिट, एक सैकेण्ड पर आ जाओ। अन्दर बैठे हैं, अन्दर बैठे हैं। हर समय आप नशे में रहेंगे और वो अनन्त कोटि ब्रह्माण्डनायक सर्वशक्तिमान् भगवान् अन्दर बैठे हैं, मेरे बराबर कौन है, ऐसी फीलिंग होगी आपको। कोई पाप करने जब आप चलेंगे, तो धक् होगा अन्दर, अरे! वो नोट कर लेंगे, फिर कृपा कैसे करेंगे वो, कि हमसे चोरी करता है, हम अन्दर बैठे हैं और तू पाप की बात सोच रहा है। तो हम पाप नहीं कर सकेंगे।


तो हर समय भगवान् को सर्वत्र महसूस करना एक साधना ये और एक एकान्त में जो समय मिले, बैठकर भगवान् का रूपध्यान करके और रोकर उनका नाम गाओ, गुण गाओ, लीला गाओ सब ठीक इससे अन्त:करण शुद्ध होगा जब पूर्ण शुद्ध हो जायेगा, पूर्ण वैराग्य हो जायेगा संसार से ।

बाप मर गया, माँ मर गयी, बेटा मर गया, कोई मर गया, हाँ कोई फीलिंग नहीं। एक हजार गाली दिया, पड़ोसी ने कोई फीलिंग नहीं, जब इस स्टेज पर आप आ जायेंगे तब फिर गुरु आपको स्वरूप शक्ति देगा। तब देगा ये । जैसे- आप अपने कमरे में, मकान में सब फिटिंगकर लीजिये रॉड लगा दीजिये, पंखे लगा दीजिये अब लेकिन कुछ हुआ नहीं। अरे! तो क्या होता पॉवर हाउस ने पॉवर तो दिया ही नहीं । अब पॉवर हाउस से तार जोड़ दिया मैकेनिक ने आ के। अहा ! लाइट भी हो गई, पंखे भी चल गये। तो ऐसे ही जब गुरु कान फूँकेगा, मंत्र देगा, वो चाहे छू ले, चाहे चिपटा ले, चाहे कान में दे तुरन्त माया गई, दिव्यानन्द मिला सदा को, भगवद्दर्शन हुआ सदा को। गुरु जी ने खाली एक अक्षर बोल दिया और वो गुरु हो गया, हम उनके चरण धोके पीयें, वो चाहे राक्षस हो, घोर पाप कर रहे हों। अरे उन्होंने सबसे पहले हमको धोखा दिया कि तुम चेले हो गये हम गुरु हो गये। क्यों? ये जो हमने कह दिया रामाय नमः, कृष्णाय नमः। ये रामाय नमः, कृष्णाय नमः तो सब जगह लिखा है। गीता, भागवत, पुराण सर्वत्र हम पढ़ लेंगे तुमने क्या दिया हमको ? अगर तुम हमको संसार का वैराग्य देते, भगवान् का अनुराग देते. तो हम समझते कि तुमने कुछ दिया। सब धोखा है इस धोखे से बचिये, और मन से भक्ति कीजिये, तो मन शुद्ध होगा तो अपराध नहीं होगा, तो फिर ये बदनामी नहीं होगी कि हमारे देश में इतनी भक्ति दिख रही है, फिर भी इतना भ्रष्टाचार क्यों है।


निष्कर्ष:
इस प्रकार, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने भारतीय भक्ति की आध्यात्मिक धारा के महत्व को समझाया है। उन्होंने बताया है कि हमारे भारत में भगवान् की भक्ति तो होती है, लेकिन उसमें अनाचार, दुराचार, भ्रष्टाचार के कारण हमें दुख का सामना करना पड़ता है। उन्होंने बताया कि भक्ति करने के लिए मन को शुद्ध करना आवश्यक है और इन्द्रियों के द्वारा भक्ति करना व्यर्थ है। उन्होंने भक्ति के महत्व को समझाने के लिए रूपध्यान और नाम स्मरण की महत्वपूर्णता बताई है। उनके अनुसार, भगवान् के साथ सदा महसूसी बनाए रखना है ताकि हम पाप करने से बच सकें और अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर सकें। भगवान् को समर्पित और अनुरागी भाव से भक्ति करना ही असली भक्ति है।


वैराग्य क्या है? वैराग्य कब होता है?: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा वैराग्य का स्वरूप

kripalu ji maharaj


प्रायः लोग राग शब्द का अर्थ प्यार ही करते हैं, पर ऐसा नहीं है, राग का अर्थ है मन का लगाव, वह मन का लगाव प्यार से हो या खार से हो। अर्थात् अनुकूल भाव या प्रतिकूल भाव, किसी भी भाव से मन की आसक्ति, आसक्ति ही कहलाएगी और जब न अनुकूल भाव से आसक्ति हो और न प्रतिकूल भाव से आसक्ति हो तभी वैराग्य कहलायेगा ।

स्थूल बुद्धि से यों समझिये कि जब आप किसी प्रिय का चिन्तन करते हैं तो सदा सर्वत्र उसी में मन व्यस्त रहता है, यह कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, कहाँ मिलेगा, बड़ा अच्छा आदमी है, हमारा हितैषी है, हमारा प्रेमी है' इत्यादि । ठीक इसी प्रकार, जिससे आपका द्वेष हो जाय, वहाँ भी सदा सर्वत्र मन व्यस्त रहता है कि वह कहाँ मिलेगा, कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, वह हमारा शत्रु है, अनिष्टकारी है, उसे मारना है, इत्यादि ।

उपर्युक्त रीति से प्यार एवं खार दोनों ही में एक सी स्थिति मन की रहती है। यही प्रमुख कारण है कि अनुकूलभाव से मन को श्यामसुन्दर से एक कर देने वाली गोपियाँ भी भगवत्-स्वरूपा बन गयीं एवं प्रतिकूल भाव से मन को श्यामसुन्दर में एक कर देने वाले कंसादिक भी भगवत्स्वरूप बन गये।

बस, यही अवस्था वैराग्य की है। जैसे, एक माँ अपने खोये हुए पुत्र को मेले में ढूँढ़ती है। वह रोती हुई अपने बच्चे को खोज रही है। उसे एक बच्चा पीछे से दिखाई पड़ा जिसके कपड़े, आयु, कद, जूते आदि उसी के बच्चे के समान थे। वह उसी बच्चे को अपना बच्चा समझ बैठी और 'बेटा-बेटा' कहकर दौड़ी। जब उसका मुख देखा तो वह उसका बेटा न था। बस, उसे उस बेटे से वैराग्य हो गया, अर्थात् वह माँ न तो उस बेटे को प्यार ही करती है कि हमारा बेटा नहीं मिला न सही, चलो इसी से प्यार करें और न तो शत्रुता ही करती है कि 'क्यों रे, मैंने तो सोचा था कि तू मेरा बेटा है, तू पराया क्यों हुआ ? इत्यादि । बस, इसी अवस्था का नाम वैराग्य है।

जैसे, किसी शराबी को शराब के लिये मदिरालय जाना पड़ता है किन्तु मदिरालय के पूर्व कई दुकानें अन्य सामानों की पड़ती हैं। वह उन दुकानों के सामने से तो जाता है, देखता भी जाता है, किन्तु विरक्त है। अर्थात् न तो किसी दुकान पर खड़ा होता है कि चलो मदिरा न सही, इस दुकान पर रसगुल्ला ही खा लें और न तो झगड़ा ही करता  है कि मुझे तो मदिरा चाहिये, तू रसगुल्ला की दुकान क्यों बीच में लगाये बैठा है, इत्यादि। वह सबसे विरक्त होकर अपने मदिरालय के लक्ष्य पर जा रहा है। बस, यही वैराग्य है। इस संसार में सब दुकानों से गुजरता हुआ अपने परमानन्द के केन्द्र भगवान् का दुकान पर ही सीधा जाय, अन्यत्र कहीं भी न राग हो न द्वेष हो ।

यह ध्यान रहे कि जब तक मन ईश्वर के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी राग या द्वेष युक्त (आसक्त) रहेगा, तब तक ईश्वर शरणागति असम्भव है और जब तक संसार में, "न तो यहाँ हमारा आध्यात्मिक सुख है। और न यहाँ हमें बरबस अशान्त करने वाला दुःख ही है, ऐसा ज्ञान परिपक्व न होगा, तब तक वैराग्य भी असम्भव है।

इस परिपक्वता के लिये संसार के स्वरूप पर गम्भीर विचार एवं बार-बार विचार करना होगा, बार-बार विचार से ही दृढ़ता आयेगी। एक बार विचार करने मात्र से काम नहीं बनेगा क्योंकि अनन्तानन्त जन्मों का विपरीत विचार संगृहीत है।

आप लोग सोचते होंगे, जब मन संसार में राग-द्वेष रहित, अलग हो जायगा तब फिर क्या करना अवशिष्ट रह जायगा ? क्योंकि तब तो वासना का निर्माण ही न होगा। जब वासना का निर्माण न होगा तो उसकी पूर्ति में लोभ या अपूर्ति में क्रोधादि की उत्पत्ति ही न होगी, तब फिर अशान्ति या दुःख ही कैसे आ सकेंगे ? फिर शरणागति करने का व्यर्थ प्रयास क्यों किया जाय ?

किन्तु, यह सोचना भोलापन है। क्योंकि, एक तो मन विरक्त होकर वासना न बनावे यह असम्भव है क्योंकि जब तक परमानन्द न प्राप्त हो जायगा, उसकी स्वाभाविक वासना सदा रहेगी ही।

दूसरी बात यह कि राग द्वेष रहित मन क्या निश्चेष्ट पड़ा रहेगा, अर्थात् अपनी क्रिया बन्द कर देगा ? यह तो सर्वथा असम्भव है, क्योंकि कोई भी जीव एक क्षण को भी अकर्ता नहीं रह सकता, यह मैं पूर्व में ही सिद्ध कर चुका हूँ।

तीसरा कारण यह है कि अनन्तानन्त जन्मों के संस्कारों के कारण भी वासना की उत्पत्ति स्वाभाविक है, उसे कोई नहीं रोक सकता। चौथा कारण यह भी है कि जब तक माया का आधिपत्य जीव पर रहेगा, तब तक मायिक-वासना बनाना, यही जीव का स्वभाव होगा। पाँचवाँ कारण यह है कि ईश्वर प्राप्ति से ही जीव की कामना पूर्ति हो सकती है अर्थात् तृप्ति हो सकती है, उसके पूर्व असम्भव है। जैसे, प्यासे हिरन को जब तक वास्तविक जल न मिलेगा, वह मरुस्थलीय मिथ्या-जल से विरक्त भी हो जाय तो प्यास से विरक्त नहीं हो अतएव ईश्वर-शरणागति तो करनी ही पड़ेगी। सकता।

स्थूल दृष्टि से यहाँ समझ लीजिये कि यदि आप अपने घर जा रहे हैं। एवं मार्ग भूल गये हों और एक व्यक्ति आपको यह समझा दे कि यह मार्ग आपके घर का नहीं है क्योंकि आपके घर के मार्ग में अमुक पहिचान मिलती है, और आप समझ भी जायँ कि तुम ठीक कहते हो, मैं गलती पर था, किन्तु इतने जानने से आप घर न पहुँच सकेंगे। 'हमारा सांसारिक पदार्थों द्वारा वासनापूर्ति का मार्ग गलत है', यह ज्ञान तो हो गया जिसके परिणामस्वरूप वैराग्य भी हो गया किन्तु फिर, ‘हमारे परमानन्द-स्वरूप ईश्वरीय घर का कौन-सा मार्ग है', यह जानना होगा। इतना ही नहीं, उस मार्ग से चल कर घर भी पहुँचना होगा, तभी अभीष्ट सिद्धि होगी। अमुक-

कुछ लोग कहते हैं कि व्यर्थ में वैराग्य के चक्कर में क्यों पड़ा जाय, सीधे-सीधे ईश्वर में अनुराग करो बस, वैराग्य अपने आप हो जायगा। किन्तु विचारणीय यह है कि ईश्वर में अनुराग करोगे किससे एवं किसलिये करोगे? उत्तर यही मिलेगा कि मन से अनुराग करेंगे। और चूँकि ईश्वर में सुख है और सुख ही हमारा अभीष्ट है, इसलिये अनुराग करेंगे। परन्तु बुद्धि तत्क्षण खंडन कर देगी कि चलो हम मान लेते हैं कि ईश्वर में सुख होगा किन्तु संसार में भी तो सुख है। इतना ही नहीं, संसार का सुख करतलगत है, प्रत्यक्ष है, अनुभूत है, उसे छोड़कर अन्धेरे में क्यों पड़ें ? तब फिर मन का अनुराग ईश्वर में कैसे होगा ? कहना सुगम है, करना कठिन हुआ करता है। ऐसे भोले विचारक सोचें कि मरुस्थल के उड़ते हुए जिन बालू के कण को, सूर्य के प्रकाश में देखकर हिरन को यह विश्वास हो जाता है। कि वहाँ पानी अवश्य है, वह मर कर भी अपने विश्वास को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार 'संसार में सुख है', यह विश्वास जब तक बुद्धि में जमा है, अनन्तबार मर कर भी हम अपना निश्चय नहीं बदल सकते। यही आशा बनी रहेगी कि अब सुख मिलेगा, अब सुख मिलेगा।

अतएव यह कहना अपने आपको धोखे में डालना मात्र है कि सीधे मन भगवान् में लगा दो, बस, सब काम ठीक हो जायगा। मन लगाने वाला कौन होगा? आप जानते हैं मन का शासक कौन है ?

अब आप सोचिये कि जब एक दर्शक विराट् रूप में देखकर डर रहा है तो सब विभोर कैसे होंगे? विभोर तो वे ही हुए जो अधिकारी थे, भक्त थे। बस, वे ही उन्हें देख सके |

अब आप समझ गये होंगे कि मन भगवान् में अपने आप अवतारकाल में भी नहीं लगेगा, फिर अवतारकाल न रहने पर तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता। यदि मैं स्पष्ट कहूँ तो यह कह सकता हूँ कि यदि आप रामकृष्णादि भगवान् को समक्ष देख लें तो विभोर होने की बात तो दूर रही, शायद नास्तिक भी हो जायें, क्योंकि जब तक आप यह रहस्य न जान लें कि उनका वास्तविक रूप एवं कर्म दिव्य हैं तब तक प्राकृत दृष्टि में दीखने वाले प्राकृत शरीर एवं प्राकृत कर्म में कैसे ईश्वरीय भावना बना सकेंगे ? अस्तु, हमें किसी पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होगी।

निष्कर्ष:
इस ब्लॉग में, जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने वैराग्य के स्वरूप को समझाया है। वे कहते हैं कि वैराग्य का अर्थ मन की आसक्ति से मुक्त होना है, चाहे वह प्रेम से हो या द्वेष से। वैराग्य में मन का स्थिरीकरण और दिव्य भावना को स्थायी बनाना आवश्यक है। वे बताते हैं कि वैराग्य द्वारा ही हम आत्म-स्वरूप को शुद्ध करके आनंदमय जीवन का अनुभव कर सकते हैं। उन्होंने यह भी दिखाया है कि वैराग्य के द्वारा मन को संसार के राग-द्वेष से मुक्त करना संभव है, और भगवान् की शरण में स्थिर भाव से रहने से हम आत्मिक सुख प्राप्त कर सकते हैं।

उन्होंने विचारणीय यह भी बताया है कि वैराग्य वासना के निर्माण से नहीं रोका जा सकता, क्योंकि जन्मों के संस्कारों के कारण वासना स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। इसलिए वैराग्य के द्वारा मन को राग-द्वेष से ऊपर उठाकर भगवान् की शरण में स्थिरता से रहने में सफलता हो सकती है। वैराग्य के माध्यम से हम अपने परमानन्द स्वरूप ईश्वर की शरण में पहुंच सकते हैं। यह एक दुर्लभ अवसर है जो हमें संसार के फंदे से मुक्त कर सकता है। वैराग्य की ध्यान रखते हुए हमें ईश्वरीय मार्ग का अनुसरण करना चाहिए, जिससे हम आत्मिक सुख को प्राप्त कर सकें।

इस ब्लॉग ने हमें वैराग्य के महत्वपूर्ण सिद्धांतों के प्रति जागरूक किया है और हमें अपने आत्म-स्वरूप की खोज में प्रेरित किया है। यह ज्ञान हमें सुखी और शांतिपूर्ण जीवन जीने के मार्ग में मदद करेगा। इस ब्लॉग को पढ़कर हमें स्वयं के विकास में सहायता मिलेगी और हम आनंदमय जीवन का अनुभव कर सकेंगे।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज : आप कौन हैं एवं आप अपना आनन्द चाहते हैं या किसी और का चाहते हैं

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जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के उपदेशों के माध्यम से आत्म-स्वरूप की विचारधारा:

अब आप यह विचार करें कि आप कौन हैं एवं आप अपना आनन्द चाहते हैं या किसी और का चाहते हैं। आप कहेंगे कि मैं कौन हूँ यह तो नहीं जानता किन्तु इतना जानता हूँ कि मैं केवल अपना ही आनन्द चाहता हूँ। यदि आप मायिक तत्त्व होते तो मायिक पदार्थों से आपको आनन्द-प्राप्ति हो जाती, किन्तु आप ईश्वर के अंश है अतएव ईश्वरीय दिव्यानन्द से ही आप आनन्दमय हो सकते हैं। तर्कसम्मत सिद्धान्त भी है, साथ ही अनादिकाल के अनुभव से भी सिद्ध है कि यदि मायिक आनन्द से दिव्य जीव को दिव्य आनन्द मिलना होता तो अनन्तानन्त युगों से अब तक मायिक सुख मिलते हुए हम इस प्रकार दुःखी, अशान्त, अतृप्त, अपूर्ण न रहते। यह अनुभव-प्रमाण ही यह बोध कराने में समर्थ है कि हम मायिक नहीं हैं। फिर भी हमें इस तत्त्व पर गम्भीर विचार करना है।

कुछ भोले प्रत्यक्षवादी कहते हैं कि इन्द्रियादि की भाँति आत्मा भी देह का परिणाम है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु बस इन्हीं ४ तत्वों से देह एवं 'मैं' बना है। अर्थ एवं काम दो पुरुषार्थ हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण ही प्रमाण है। इन प्रत्यक्षवादियों में भी कोई देह को, कोई चक्षुरादि को, कोई प्राण को आत्मा मानते हैं, सांसारिक विषय-सुख को ही स्वर्ग एवं वियोगादि दुःख को ही नरकादि मानते हैं।

बाह्य पृथ्वी, आदि महाभूतों में चैतन्य न दीखने से चैतन्य को भूतों का धर्म नहीं कहा जा सकता। यदि कहा जाय कि देहाकार में परिणत भूतों का ही धर्म चैतन्य है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि मृतावस्था देह के रहते चैतन्य नहीं रहता। में

यदि समुदायभूत अवयवी को चैतन्य कहा जाय तो एक अवयव के नष्ट होने पर सब अवयव नष्ट हो जाने चाहिए।

यदि एक-एक अवयव को चैतन्य कहा जाय तो परस्पर सदा विरोध रहेगा एवं ऐसा किसी के अनुभव में नहीं आता। देह के रहने पर ही ज्ञानेच्छादि का प्राकट्य देख कर देह में आत्मभाव मान लेना भोलापन है, क्योंकि काष्ठादि के न होने पर यदि अग्नि प्रकट नहीं दीखता तो इसका अभिप्राय यह नहीं कि अग्नि तत्त्व ही नहीं है।

यदि भौतिक पदार्थों के अनुभव को चैतन्य कहा जाय तो फिर यह आपत्ति आयेगी कि वे तो विषय हैं। जैसे अग्नि सर्वदहनसमर्थ है पर स्वयं को नहीं जला सकती, नट अपने कंधे पर नहीं बैठ सकता, वैसे ही यदि चैतन्य भौतिक धर्म हो तो भौतिक पदार्थ को विषय नहीं बना सकता। जैसे प्रकाश के अभाव में दीपक की उपलब्धि नहीं होती क्योंकि उपलब्धि दीपक का धर्म नहीं है, वैसे ही आत्मा देह धर्म नहीं है।

इसके अतिरिक्त अनुभव द्वारा भी विचार कीजिये। जब आप जाग्रत में रहते हैं तब ऐसा बोलते हैं कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, आदि। अर्थात् आप मानो इन्द्रियाँ ही हैं । किन्तु जब आप स्वप्नावस्था में स्वप्न बनाने लगते हैं तब, यद्यपि शरीरेन्द्रियाँ आपकी खाट पर पड़ी रहती हैं फिर भी आप स्वप्न में न जाने किस आँख से देखते हैं, सुनते हैं, सूँघते हैं, इत्यादि। इससे सिद्ध होता है कि आप इन्द्रियाँ नहीं हैं, भले ही मन हों, किन्तु जब आप गहरी नींद, सुषुप्ति अवस्था में सो जाते हैं तो कुछ भी अनुभव नहीं करते।

अब यह सिद्ध हो गया कि 'मैं' इन्द्रिय, मन आदि नहीं अपितु ईश्वरीय अनादिकालीन नित्य अंश हूँ। अतएव हमारा सुख ईश्वरीय होगा। संसार में हमारा सुख तर्क एवं अनुभव दोनों के विरुद्ध है। यही कारण है कि यद्यपि मन आदि अनन्त युगों से प्रतिक्षण मुझे यह धोखा देना चाहते हैं कि अब की बार मुझे अमुक वस्तु से सुख मिल जायगा, वह वस्तु मिलती भी है, परन्तु सुख नहीं मिलता। यदि हम मन बुद्धि के सजातीय होते तो उसके बहकाने में आ जाते किन्तु मैं दिव्य तत्त्व हूँ अतएव जब तक नित्यानन्द न प्राप्त हो जायगा तब तक महत्तम मायिक पदार्थों के पाने पर भी 'मैं' आनन्दमय नहीं हो सकता। अब आप संसार सूक्ष्म एवं स्थूल रूप पर विस्तृत मीमांसा करें, क्योंकि यहाँ पर ही मन अटका हुआ है एवं बुद्धि का भी यह निश्चय सा बना हुआ है कि संसार में सुख अवश्य है एवं अवश्य मिलेगा तभी तो हम तदर्थ प्रतिक्षण प्रयत्नशील हैं।

निष्कर्ष:
इस ब्लॉग में, हमने जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के उपदेशों के माध्यम से आत्म-स्वरूप की विचारधारा पर चर्चा की है। इसमें हमने देखा कि हम कौन हैं और हमारी सच्ची ख़ुशियाँ कहाँ से मिलती हैं। हमारे अंतरंग भाग्य के रूप में हम ईश्वर के अंश हैं, और इसलिए हमारी ख़ुशियाँ ईश्वरीय दिव्यानन्द से ही साक्षात्कार की जा सकती हैं। इसके अलावा इस ब्लॉग में भोले प्रत्यक्षवादियों के विचारों का भी विश्लेषण किया है, जो देह को ही आत्मा मानते हैं। हमें बताया गया है कि यदि हम इन्द्रियों के अधीन होते, तो हम भी संसारिक सुखों से पूर्ण होते, लेकिन हमारी ख़ुशियाँ संसारिक विषय-सुखों से नहीं आतीं। इससे सिद्ध होता है कि हम वास्तव में अपने देह और इंद्रियों से अलग हैं। ब्लॉग ने इस विचार को विस्तार से समझाया है कि देहाकार तत्त्व से हमारा संबंध नहीं है, बल्कि हम ईश्वरीय अनादिकालीन नित्य अंश हैं। हमारा आनंद सच्चे ईश्वरीय अनन्त आनंद में है।

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के उपदेश हमें संसार में ढूँढने वाली ख़ुशियों के तर्क और अनुभव के विरोध में से बाहर निकलकर सच्चे आनंद की खोज में ले जाते हैं। यह अनुभव और सिद्धान्त हमें यह समझने में सहायता करते हैं कि हम अपनी सच्ची ख़ुशियों का अनुसरण करें और दुर्भाग्यशाली विषय-सुखों में न उलझें। हमारा सच्चा आनंद ईश्वरीय है और इस दिव्य आनंद को प्राप्त करने के लिए हमें अपने आत्म-स्वरूप को विशुद्ध करने और दिव्य भावना को स्थायी बनाने की दिशा में काम करना चाहिए।

The Role of Divine Love in Everyday Life: Insights from Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj

Jagadguru Shri Kripalu Ji Maharaj explained that divine love is a transformational energy that can significantly enhance our daily lives ra...